Tuesday 23 September 2014

सेवानिवृत्ता न्यायाधीश ....राजनीतिक नियुक्ति




सत्यम-सतशिवम-सुंदरम

Tue, 09 Sep 2014

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी सतशिवम ने केरल के राज्यपाल के रूप में शपथ ग्रहण कर ली है, लेकिन यह बहस जारी है कि उन्हें राज्यपाल बनाया जाना चाहिए या नहीं? लगे हाथ एक सवाल यह भी उछाला जा रहा है कि उन्हें राज्यपाल बनना चाहिए था या नहीं? इस बहस में कुछ भी अनुचित नहीं, क्योंकि वह सुप्रीम कोर्ट के पहले ऐसे मुख्य न्यायाधीश हैं जिन्हें राज्यपाल बनाया गया है और इस तरह से एक नया काम हुआ है, लेकिन इस बहस को धार दे रहे लोग जिस तरह यह रेखांकित कर रहे हैं कि मोदी सरकार ने सतशिवम को अमित शाह के जमानत पर बने रहने में सहायक साबित हुए फैसले के एवज में राज्यपाल की कुर्सी नवाजी है वह एक तरह से चरित्र हनन की राजनीति है। आम तौर पर यह दुष्प्रचार वही लोग कर रहे हैं जो इस चिंता में भी दुबले हो रहे हैं कि राज्यपाल पद की गरिमा से खिलवाड़ हो रहा है। सतशिवम को राज्यपाल बनाए जाने को लेन-देन का मामला बताना अपने राजनीतिक फायदे के लिए जानबूझकर कीचड़ उछालना है। यह सही है कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश रहते समय सतशिवम ने एक ऐसा फैसला दिया था जिससे अमित शाह को जमानत पर बने रहने में सफलता मिली, लेकिन ऐसा करते समय उन्होंने इसी तरह के कई फैसलों का हवाला दिया था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि सतशिवम ने अमित शाह को राहत देने का फैसला अकेले नहीं लिया था। यह फैसला जिस दो सदस्यीय पीठ ने दिया था उसके एक अन्य सदस्य बीएस चौहान भी थे। जाहिर है कि सतशिवम के राज्यपाल बनने को किसी किस्म के लेन-देन का मामला बताने वाले लोग तथ्यों को अपने हिसाब से काट-छांटकर पेश कर रहे हैं। इस काट-छांट का मकसद राजनीतिक लाभ हासिल करना भर है।
इस पर गौर किए जाने की जरूरत है कि सतशिवम की पीठ ने सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले में अमित शाह के खिलाफ सीबीआइ की ओर से दर्ज दूसरी एफआइआर को खारिज भर किया था। सीबीआइ ने अमित शाह के खिलाफ दूसरी एफआइआर इस आधार पर दर्ज की थी कि तुलसीराम प्रजापति मुठभेड़ का मामला सोहराबुद्दीन मामले से अलग है। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि ये दोनों मुठभेड़ एक ही साजिश का हिस्सा हैं और इसके लिए अलग-अलग मुकदमा चलाने की जरूरत नहीं है। अमित शाह के वकील का आरोप था कि सीबीआइ एक और चार्जशीट दायर कर उन्हें फिर से जेल भेजना चाहती है। सतशिवम के राज्यपाल बनने से दुखी लोग ऐसी प्रतीति करा रहे हैं मानों उन्होंने न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठकर अमित शाह को सारे आरोपों से बरी कर दिया हो। इस मामले में यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि अमित शाह को जिस समय सुप्रीम कोर्ट से राहत मिली उस समय न तो कोई यह कहने की स्थिति में था कि केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने जा रही है और न ही यह कि इस सरकार के गठन के बाद अमित शाह भाजपा अध्यक्ष बनेंगे। जिस वक्त अमित शाह को जमानत मिली उस दौरान तो 'अबकी बार मोदी सरकार' नारे ने भी आकार नहीं लिया था।
अगर सतशिवम के राज्यपाल बनने के कारण इस सुविधाजनक नतीजे पर पहुंचा जाएगा कि सेवानिवृत्तिके बाद मिलने वाले किसी लाभ की खातिर उन्होंने न्याय से समझौता किया तो फिर यह भी माना जाना चाहिए कि पिछले वषरें में सुप्रीम कोर्ट के जो ढेर भर सेवानिवृत्ता न्यायाधीश विभिन्न आयोगों, न्यायाधिकरणों आदि के प्रमुख बने उन्होंने भी न्याय से समझौता किया। सुप्रीम कोर्ट के करीब एक दर्जन न्यायाधीश ऐसे हैं जिन्होंने पिछले दस वषरें में यानी मनमोहन सरकार के समय में सेवानिवृति के बाद किसी नए पद को ग्रहण किया। इनमें से कुछ तो ऐसे रहे कि इधर रिटायर हुए और उधर नए पद पर पहुंच गए। सतशिवम सेवानिवृत्तिके पांच माह बाद राज्यपाल बने हैं। अगर यह नियम नहीं बना है कि सेवानिवृत्ता होने के कितने समय बाद किसी न्यायाधीश को नया पद ग्रहण करना चाहिए तो उसके लिए सतशिवम को दोष नहीं दिया जा सकता। उन्हें इसलिए भी नहीं लांछित किया जा सकता कि उन्होंने राज्यपाल बनना क्यों स्वीकार किया? यह सतशिवम ही बता सकते हैं कि उन्होंने राज्यपाल बनना क्यों स्वीकार किया, लेकिन जब तक यह पद अस्तित्व में है तब तक उस पर लोग नियुक्त होंगे ही।
सतशिवम के राज्यपाल बनने पर कुछ लोग यह दलील दे रहे हैं कि उन्हें इस आधार पर राज्यपाल पद स्वीकार नहीं करना चाहिए था कि इससे गलत संदेश जाएगा। एक तो गलत संदेश जानबूझकर पैदा किया जा रहा है और दूसरे ऐसी कोई दलील तब क्यों नहीं दी गई जब अन्य सेवानिवृत्ता न्यायाधीश मलाईदार पदों पर सुशोभित किए गए? नैतिकता की लक्ष्मण रेखा केवल सतशिवम के आगे ही खींचने का कोई मतलब नहीं। यह न्यायसंगत नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज के लिए अलग मानदंड बनाए जाएं और शेष के लिए अलग। ऐसा लगता है कि सतशिवम के आलोचक यह मानकर चल रहे हैं कि मोदी सरकार जो कुछ कर रही है वह गलत ही है। कोई भी सरकार हो उसके फैसलों की आलोचना गुण-दोष के हिसाब से होनी चाहिए, न कि इस नजरिये से कि हम विपक्ष में हैं तो सरकार के हर फैसले की सिर्फ और सिर्फ आलोचना ही करेंगे। यह हास्यास्पद है कि सतशिवम को राज्यपाल बनाने को तो राजनीतिक नियुक्ति बताया जा रहा है, लेकिन अन्य राज्यपालों के मामले में यह कहा जा रहा है कि संवैधानिक पद का निरादर किया जा रहा है। मोदी सरकार बनने के बाद से नौ वे राज्यपाल इस्तीफा दे चुके हैं जिन्हें पिछली सरकार के समय नियुक्त किया गया था। इनमें से कई ने तब इस्तीफा दिया जब उन्हें मिजोरम का डर दिखाया गया। कहते हैं कुछ को गृह मंत्रालय के एक अफसर ने फोन करके इस्तीफा देने को कहा। अगर यह सही है तो कुछ वैसा ही है जैसे कोई मैनेजर किसी कर्मी से कहे कि कल से काम पर मत आना। क्या यह उम्मीद की जाए कि जो नए राज्यपाल बने हैं वे हाल में भूतपूर्व हुए राज्यपालों की गति को प्राप्त होने से बचेंगे?
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]

No comments: