Thursday 4 September 2014

दागियों को मंत्री बनाने


स्वच्छ दिखे सरकार

नवभारत टाइम्स | Aug 29, 2014

सुप्रीम कोर्ट ने दागियों को मंत्री बनाने के संबंध में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को जो नसीहत दी है, उसे उनको गौर से सुनना चाहिए। पीएम और सारे सीएम कोर्ट की यह सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं हैं, पर वे अच्छी तरह जानते हैं कि अदालत के सुझाव में देश के करोड़ों लोगों की भावनाएं निहित हैं। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने एक याचिका पर सुनवाई के बाद साफ शब्दों में कहा कि पीएम और सीएम दागियों को कैबिनेट में शामिल न करें। हालांकि पीठ ने साफ किया कि किसी को मंत्री बनाना प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है और अदालत किसी दागी मंत्री की नियुक्ति को रद्द नहीं कर सकती। सन 2004 में मनोज नरूला ने जनहित याचिका दाखिल कर तत्कालीन यूपीए सरकार के कुछ मंत्रियों को हटाने की मांग की थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था। लेकिन याचिकाकर्ता की तरफ से पुनर्विचार याचिका दायर करने पर कोर्ट ने मामले को संविधान पीठ के पास भेज दिया। राजनीति का अपराधीकरण हमारे सिस्टम की सबसे बड़ी बीमारियों में से एक है, जिसके खिलाफ जनता की जंग अर्से से जारी है। न्यायपालिका और निर्वाचन आयोग जैसी संस्थाओं ने भी इसके खिलाफ अपनी सीमाओं में अभियान चलाए हैं। विधायिका में अपराधी तत्वों की मौजूदगी पर रोक के लिए कई कानून भी बने, मगर निर्णायक जीत अभी सपना बनी हुई है। भ्रष्ट और आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेता हर बार संसद और विधानसभाओं में दावे के साथ चुनकर आते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है राजनीतिक दलों का दोहरा चरित्र। वे ऐसे प्रत्याशियों को टिकट न देने के वादे तो करते हैं पर चुनाव आते ही अपना वादा भूल जाते हैं। इसलिए दागी नेता न सिर्फ विधायिका में, बल्कि मंत्रिमंडल तक में जगह पा जाते हैं। मौजूदा केंद्रीय मंत्रिमंडल को ही लें तो इसमें तेरह ऐसे मंत्री हैं, जिन पर गंभीर आरोप लगे हैं। इनमें से एक निहालचंद मेघवाल पर तो बलात्कार जैसा संगीन आरोप लगा हुआ है, और राजस्थान पुलिस अदालत में ऐसा बयान दे चुकी है कि उसे इन मंत्री महोदय का कुछ भी पता-ठिकाना मालूम नहीं है। निहालचंद के अलावा उमा भारती, नितिन गडकरी, मेनका गांधी, डॉ. हर्षवर्धन और रामविलास पासवान जैसे सीनियर मंत्रियों पर भी भ्रष्टाचार आदि से जुड़े कई आपराधिक मामले चल रहे हैं। बीजेपी राजनीतिक शुचिता की बात बहुत ज्यादा करती है। देश में लोकपाल को मुद्दा बनाकर चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का भी उसने खुलकर समर्थन किया था। जाहिर है, उसे जनादेश भी मुख्यत: भ्रष्टाचार के खिलाफ ही मिला है। ऐसे में गंभीर आरोपों से घिरे लोगों को कैबिनेट में जगह देकर क्या प्रधानमंत्री इस जनादेश का मखौल नहीं उड़ा रहे हैं? जनतंत्र में कानून की धाराओं से कहीं ज्यादा ताकत जनता की नजर में होती है। बेहतर है कि पीएम इस नजर की अनदेखी न करें, और सुप्रीम कोर्ट की बात रखते हुए कम से कम उस एक मंत्री से तो निजात पा ही लें, जिसके बारे में उसके राज्य की पुलिस इतना भी नहीं जानती कि अदालत का सम्मन तक उसके पास पहुंचा सके।

--------------------------

दागियों का सवाल

Thu, 28 Aug 2014

दागी नेताओं को मंत्री बनाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को कोई निर्देश देने के बजाय जिस तरह खुद को केवल सलाह देने तक ही सीमित रखा उसे देखते हुए यह कहना कठिन है कि राजनीतिक दल उसकी राय को पर्याप्त महत्व देंगे। आसार इसी बात के अधिक हैं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद दागी समझे जाने वाले नेता मंत्री बनते रहेंगे। ऐसा इसलिए, क्योंकि दागी की कोई सीधी-सरल परिभाषा नहीं है। राजनीतिक दलों के लिए दोषी सिद्ध न होने तक व्यक्ति निर्दोष है। इतना ही नहीं वे तब तक यह दलील देते रहते हैं जब तक मामले का निपटारा अंतिम तौर पर न हो जाए। ज्यादातर मामलों में ऐसा सुप्रीम कोर्ट के स्तर पर ही होता है। यह तो गनीमत रही कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल में यह पाया कि दो वर्ष से अधिक की सजा वाले मामले में दोषी पाया व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता, अन्यथा वे चुनाव भी लड़ रहे होते और जीतने की स्थिति में मंत्री पद के दावेदार भी बन रहे होते। नि:संदेह नैसर्गिक न्याय का तकाजा यही है कि दोष सिद्ध न होने तक व्यक्ति को निर्दोष माना जाए, लेकिन लोकतंत्र में लोक भावना का भी महत्व है। जब आपराधिक छवि और अतीत वाले नेता मंत्री पदों पर काबिज होते हैं तो इससे लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादा को ठेस पहुंचती है। सबसे खराब बात यह होती है कि राजनीति के अपराधीकरण को बल मिलता है। कई बार राजनीतिक दल इसकी परवाह नहीं करते कि दागी छवि वाले नेता को मंत्रिपरिषद में शामिल करने से जनता और समाज पर क्या असर पड़ने जा रहा है? अक्सर उनके पास यह भी एक आड़ होती है कि गठबंधन राजनीति की मजबूरी के चलते अनचाहे फैसले करने पड़ते हैं। यह शुभ संकेत है कि गठबंधन राजनीति की जड़ें कमजोर होती दिख रही हैं, लेकिन फिलहाल उससे छुटकारा मिलता भी नहीं दिखता।
नि:संदेह सुप्रीम कोर्ट ने यह सही कहा कि किसे मंत्री बनाया जाए और किसे नहीं, यह प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार है, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इस अधिकार की मनचाही व्याख्या होती है। कई बार विपक्षी दल जैसे दागी नेताओं को मंत्री बनाए जाने का विरोध करते हैं सत्ता में आने पर वैसे ही नेताओं को मंत्री बनाने के पक्ष में दलीलें दे रहे होते हैं। चूंकि दागी नेता की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं इसलिए अक्सर ऐसा नेता भी दागियों की सूची में शामिल कर लिए जाते हैं जो धरना-प्रदर्शन के दौरान पुलिस से उलझे होते हैं। बेहतर होगा कि एक ओर जहां राजनीतिक दल दागी छवि वाले लोगों को मंत्री बनाने के साथ-साथ चुनाव मैदान में भी उतारने से बचें वहीं दूसरी ओर न्यायपालिका के स्तर पर ऐसी कोई व्यवस्था बने जिससे गंभीर आरोपों से घिरे नेताओं के मामलों की सुनवाई एक निर्धारित समय में हो सके। अच्छा होगा कि सुप्रीम कोर्ट अपने उस फैसले पर पुनर्विचार करे जिसमें उसने मोदी सरकार की उस याचिका को सुनने से इन्कार कर दिया था जिसमें उससे ऐसा ही अनुरोध किया गया था। यदि गंभीर आरोपों से घिरे विधायकों और सांसदों के मामले का निपटारा एक निश्चित समय में होने लगे तो फिर उनके मंत्री बनने की संभावनाओं पर एक बड़ी हद तक अंकुश लग सकता है।
------------------

सरकार का दामन

जनसत्ता 29 अगस्त, 2014 : सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर सरकार को दागी नेताओं से मुक्त करने की नसीहत दी है। उसने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के विवेक पर छोड़ दिया है कि वे किस तरह अपने मंत्रिमंडल से आरोपी नेताओं को अलग करें। करीब साल भर पहले अदालत ने जन-प्रतिनिधित्व कानून की व्याख्या करते हुए व्यवस्था दी थी कि जिन नेताओं को किसी अदालत से दो साल या इससे अधिक की सजा सुनाई जा चुकी हो, उन्हें अपने पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है। दरअसल जन-प्रतिनिधित्व कानून में राजनेताओं को यह छूट मिली हुई है कि अगर उन्होंने किसी फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत में अपील दायर कर रखी है तो वे अंतिम फैसला आने तक अपने पद पर बने रह सकते हैं। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने उस कानूनी प्रावधान को संविधान के समानता के अधिकार और जन-प्रतिनिधित्व कानून की मूल भावना के विरुद्ध करार दिया था। इस पर लगभग सभी दलों ने एतराज जताया था। विचित्र है कि अदालत के फैसले पर राजनीतिक शुचिता की दिशा में कदम बढ़ाने के प्रयास किए जाने के बजाय पक्ष और विपक्ष दोनों ने चुप्पी साधे रखी। नरेंद्र मोदी ने केंद्र की कमान संभाली तो दावा किया था कि उनकी सरकार में दागी नेताओं के लिए कोई जगह नहीं होगी। मगर हुआ इसके उलट। यही वजह है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद कांग्रेस को उन पर हमले का मौका हाथ लग गया है। मोदी सरकार में शामिल सत्ताईस प्रतिशत मंत्रियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। उनमें से आठ मंत्रियों के विरुद्ध गंभीर आरोप हैं। अब भाजपा यह कह कर अपना बचाव करना चाहती है कि मोदी सरकार में शामिल मंत्रियों पर मुकदमे अयोध्या आंदोलन से जुड़े हैं और फिर अदालत ने सिर्फ सुझाव दिए हैं, आदेश नहीं। मगर अदालतों के सुझाव भी फैसले से कम नहीं होते।  हालांकि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय को फैसला देने से गुरेज नहीं करना चाहिए था। यह तर्क भी सही नहीं है कि मोदी सरकार के जिन मंत्रियों के खिलाफ आरोप हैं वे सभी अयोध्या आंदोलन से जुड़े थे। फिर सांप्रदायिक उन्माद फैलाने, लोगों को फसाद के लिए उकसाने और कानून का सहारा लेने के बजाय अपने तरीके से किसी विवादित स्थल को ध्वस्त कर देने के अपराध को आंदोलन का नाम देकर किसी का बचाव कैसे किया जा सकता है! इससे तो यही जाहिर होता है कि भाजपा को कानून पर भरोसा नहीं है। जिन मंत्रियों के खिलाफ मुकदमे चल रहे हैं, उन पर फैसला वह खुद कैसे सुना सकती है! नितिन गडकरी पर अनियमितता के गंभीर आरोप हैं, जिनके चलते उन्हें दुबारा भाजपा अध्यक्ष बनाने के फैसले पर पार्टी के भीतर ही विद्रोह के स्वर फूट पड़े और उन्हें पीछे हटना पड़ा था। मगर उन्हें मंत्री बनाते समय यह बात दरकिनार कर दी गई। इसी तरह कई मंत्रियों पर रिश्वतखोरी, धमकाने, लोकसेवक को अपनी जिम्मेदारी निभाने से रोकने जैसे गंभीर आरोप हैं। ये बातें छिपी नहीं हैं। खुद इन मंत्रियों ने चुनाव लड़ते समय अपने हलफनामे में ये बातें स्वीकार की थीं। फिर भी उन्हें सरकार में जिम्मेदारियां सौंपने से परहेज नहीं किया गया तो इसे क्या कहें! अब सर्वोच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री और सभी मुख्यमंत्रियों का ध्यान दागी मंत्रियों की तरफ आकर्षित किया है तो संवैधानिक तकाजा है कि वे इस सुझाव पर गंभीरता दिखाएं। नरेंद्र मोदी ने सरकार की कमान संभालने के बाद कहा था कि वे जल्दी ही दागियों की पहचान कर लेंगे। मगर जो मामले अदालतों में लंबित हैं, उन पर फैसला आने में वक्त लगेगा। अगर वे सचमुच बेदाग सरकार के पक्षधर हैं तो उन्हें दागी मंत्रियों के बारे में फिर से विचार करना चाहिए। 
----------------------------

विधायिका का दामन

जनसत्ता 24 जुलाई, 2014 : विधि आयोग ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि विधायिका में दागियों का प्रवेश रोकने के लिए आरोप तय होते ही अयोग्यता का प्रावधान होना चाहिए। यह कोई नया सुझाव नहीं है। निर्वाचन आयोग पिछले पंद्रह साल में कई बार इसकी सिफारिश कर चुका है। लेकिन इस बारे में तब तक कुछ नहीं हो सकता जब तक सरकार या प्रमुख राजनीतिक दल राजी न हों, क्योंकि जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के बगैर यह संभव नहीं है। विभिन्न पार्टियों ने निर्वाचन आयोग की सिफारिश को कभी गंभीरता से नहीं लिया। लिहाजा, अंदाजा लगाया जा सकता है कि विधि आयोग के सुझाव का क्या हश्र होगा। चुनावी इतिहास यही बताता है कि पार्टियां राजनीति का अपराधीकरण रोकने के लिए संजीदा नहीं रही हैं, वे ऐसे लोगों को भी उम्मीदवार बनाती हैं जिनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे होते हैं। धनबल और बाहुबल जुटाने के चक्कर में उनकी यह कमजोरी बढ़ती गई है। वर्ष 2004 में जो लोग लोकसभा में पहुंचे उनमें चौबीस फीसद आपराधिक मामलों में आरोपी थे। वर्ष 2009 में यह आंकड़ा बढ़ कर तीस फीसद हो गया और सोलहवीं यानी वर्तमान लोकसभा में चौंतीस फीसद। यही हाल विधानसभाओं में भी है। इनमें से कई लोग मंत्रिमंडल में भी जगह पा जाते हैं। इससे विचित्र स्थिति और क्या होगी कि ऐसे लोग कानून बनाने और कानून का पालन सुनिश्चित करने के स्थान पर विराजमान हो जाएं। संसदीय लोकतंत्र का दारोमदार सबसे ज्यादा राजनीतिक दलों पर होता है, पर वही इस हालत के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनहीन दिखते हैं। अगर कुछ सकारात्मक पहल हुई है तो उसका श्रेय सर्वोच्च न्यायालय को जाता है। अदालत के ही आदेश पर उम्मीदवारों के लिए अपनी आय-संपत्ति और अपने खिलाफ चल रहे मुकदमों की जानकारी देना अनिवार्य किया गया, जबकि अधिकतर पार्टियां इसके पक्ष में नहीं थीं। फिर, साल भर पहले सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि निचली अदालत से दोषी ठहराए जाते ही आरोपी जनप्रतिनिधि सदन की सदस्यता के अयोग्य मान लिए जाएंगे। इसके चलते तीन सांसदों की सदस्यता जा चुकी है। इस फैसले से पहले, दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधि ऊपरी अदालत में अपील कर अपनी सदस्यता बनाए रखते थे। लेकिन सर्वोच्च अदालत की तरफ से दी गई अयोग्यता संबंधी यह व्यवस्था फैसले की तारीख से लागू हुई, यानी दस जुलाई 2013 से पहले दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधियों पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। इस साल मार्च में सर्वोच्च न्यायालय ने एक और अहम फैसला सुनाया, वह यह कि जनप्रतिनिधियों से संबंधित मामले निचली अदालत में आरोप तय होने के एक साल के भीतर निपटा दिए जाएं। अयोग्यता संबंधी उसके पिछले फैसले से जोड़ कर यह उम्मीद की गई कि अब दागी सांसदों-विधायकों के लिए ज्यादा समय तक अपनी सदस्यता बनाए रखना संभव नहीं होगा, और पार्टियों को भी सबक मिलेगा। मगर सर्वोच्च अदालत के निर्देश के बावजूद संबंधित मामलों की सुनवाई में कोई तेजी नहीं दिखती। आरोपियों के रसूख और रुतबे को देखते हुए पुलिस ऐसे मामलों की जांच में कोताही बरतती और टोलमटोल करती रहती है, जिससे आरोप तय होने में ही बहुत समय लगता है। निर्वाचन आयोग का सुझाव था कि आरोप तय होते ही उम्मीदवार की अयोग्यता का प्रावधान उसी स्थिति में लागू हो जब आरोप चुनाव से छह महीने पहले तय किए गए हों। विरोधी दलों के राजनीतिकों को झूठे मुकदमों में फंसाए जाने की आशंका जताए जाने पर बाद में उसने इस अवधि को एक साल करने का प्रस्ताव रखा। मगर पार्टियों ने तब भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। यह सचमुच बहुत निराशाजक स्थिति है। अगर पार्टियों को लगता है कि विधि आयोग और निर्वाचन आयोग के सुझाव अव्यावहारिक हैं, तो उन्हें खुद बताना चाहिए कि राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए वे कौन-से कदम उठाने को तैयार हैं!

No comments: