Thursday 4 September 2014

कॉलेजियम पर सवाल

कठघरे में खड़ी जजों की नियुक्ति 
23-07-14

सुधांशु रंजन, टेलीविजन पत्रकार

कॉलेजियम व्यवस्था फिर चर्चा में है। कॉलेजियम उच्चतम न्यायालय की वह व्यवस्था है, जिससे उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति होती है। कॉलेजियम की कार्य-प्रणाली को लेकर सवाल कोई पहली बार नहीं उठा है। सच तो यह है कि 1993 में, जब से जजों की नियुक्ति का काम कार्यपालिका के हाथ से न्यायपालिका के हाथों में आया है, तभी से इस व्यवस्था पर सवाल उठ रहे हैं। हाल ही में जब जज के पद पर गोपाल सुब्रमण्यम की नियुक्ति पर उच्चतम न्यायालय और केंद्र सरकार के बीच टकराव की स्थिति पैदा हुई थी, तब भी कॉलेजियम व्यवस्था पर विवाद खड़ा हुआ था। ताजा विवाद मद्रास हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश और उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश रह चुके मरकडेय काटजू के एक लेख से खड़ा हुआ है, जिसमें उन्होंने एक तदर्थ जज को सेवा विस्तार देने का मामला उठाया है। इन जज के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतें थीं, लेकिन यूपीए में शामिल दल द्रमुक उसके पक्ष में था। पहले उन्हें सेवा विस्तार दिया गया और बाद में स्थायी जज बना दिया गया। वैसे न्यायमूर्ति काटजू ने जो मामला उठाया है, वह कोई नया नहीं है। प्रसिद्ध वकील शांति भूषण ने इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में उठाया भी था। न्यायालय ने वह याचिका खारिज कर दी, किंतु यह भी कहा कि इसमें भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश की भूमिका सही नहीं थी। फिलहाल सारी बहस में एक बड़ा सवाल यह भी बन गया है कि काटजू ने इस मुद्दे को उठाने के लिए यही समय क्यों चुना? वह इस मामले में इतने दिनों तक चुप क्यों रहे? अगर सेवा विस्तार का यह फैसला काटजू की सिफरिश के विपरीत था, तो उन्होंने इस पर अपनी आपत्ति क्यों नहीं दर्ज कराई? कॉलेजियम के काम करने का एक तरीका यह भी है कि इसमें उन जजों से भी परामर्श किया जाता है, जो उस उच्च न्यायालय से आते हैं, जिसके लिए जज की नियुक्ति हो रही है। भले ही वे जज कॉलेजियम के सदस्य न हों। यदि इसके लिए काटजू से सलाह नहीं ली गई, तब भी वह स्वतंत्र रूप से अपना विरोध लिखित रूप में दे सकते थे। उन्होंने लिखा है कि उस जज के विरुद्ध आठ जजों ने प्रतिकूल टिप्पणियां की थीं, जिसे मद्रास उच्च न्यायालय के एक कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश ने एक झटके में खत्म कर दिया। अगर ऐसा हुआ, तो यह पूरी तरह गलत था, क्योंकि मुख्य न्यायाधीश को मामला न्यायालय के पूर्ण पीठ को सौंपना चाहिए था। लेकिन यदि ऐसा नहीं किया गया, तो न्यायमूर्ति काटजू ने बाद में ऐसा क्यों नहीं किया? वह उस घटना के बाद मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे और वह पूर्ण पीठ को उस पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकते थे। भले ही मौखिक या लिखित रूप से उन्होंने भारत के प्रधान न्यायाधीश को सूचना दी हो और खुफिया ब्यूरो से जांच करवाने की सिफारिश की हो, पर यह पर्याप्त नहीं था। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अनुशंसा के बिना उस न्यायालय के किसी अतिरिक्त जज को सेवा विस्तार नहीं दिया जा सकता। उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में रिकॉर्ड किया है कि एक के बाद एक मुख्य न्यायाधीशों ने उस जज पक्ष में सिफारिश की। फिर न्यायमूर्ति काटजू उसी कॉलेजियम की आलोचना कर रहे हैं, जिसने उन्हें उच्चतम न्यायालय का जज बनाया। वैसे भी वह कॉलेजियम व्यवस्था के अंतर्गत ही उच्च न्यायालय के जज बने थे। हो सकता है कि अपनी पदोन्नति की चिंता में उन्होंने तब कॉलेजियम को नाराज करना उचित न समझा हो। इसे लेकर अब न्यायपालिका की स्वायत्तता का मामला उठाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि एक अस्थायी जज की सेवा स्थायी करने के लिए राजनीतिक दबाव डाला गया। अग यह सच है, तो यह भी उतना ही सही है कि स्वायत्तता को खतरा केवल बाहर से नहीं, बल्कि अंदर से भी है। यह एक सच्चाई है कि उच्च न्यायालय का कोई भी न्यायाधीश कॉलेजियम के सदस्यों को नाराज नहीं  करना चाहता है। यह तथ्य भी सामने आया है कि प्रधानमंत्री कार्यालय से 17 जून, 2005 को न्याय मंत्रलय को इस जज की सेवा स्थायी करने के लिए पत्र लिखा गया था और फिर तत्कालीन विधि मंत्री हंसराज भारद्वाज ने प्रधान न्यायाधीश को पत्र लिखा। सरकार के हर पत्र या उसकी हर आशंका को राजनीतिक हस्तक्षेप मानना गलत है। कार्यपालिका को पूरा अधिकार है कि यदि कोई सूचना उसे मिलती है या ऐसा लगता है कि कुछ गलत हुआ है, तो उसे वह प्रधान न्यायाधीश की नजर में लाए। पर काटजू का कहना है कि ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि गठबंधन के सहयोगी दल ने मनमोहन सिंह सरकार को गिराने की धमकी दी। पता नहीं काटजू ने किस आधार पर इतने आधिकारिक तौर पर ऐसा लिखा है। परंतु यदि यह सत्य है, तो निश्चित रूप से यह न्यायपालिका की स्वायत्तता पर कुठाराघात है। इससे एक बात और प्रमाणित होती है कि कॉलेजियम व्यवस्था के बावजूद सरकार जिसकी नियुक्ति करवाना चाहती है, करा लेती है। कॉलेजियम व्यवस्था जब बनी थी, तब यह तर्क दिया गया था कि सरकार सबसे बड़ी मुकदमेबाज बन गई है और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए जजों की नियुक्ति का अधिकार उसके पास नहीं होना चाहिए। काटजू के खुलासे से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन की बात भी उठने लगी है। विधि मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने संसद को इसका आश्वासन दिया है। राज्यसभा में तो इस बारे में विधेयक भी पारित हो चुका है। लोकसभा में यह भाजपा के विरोध के कारण पारित नहीं हो पाया था। भाजपा का तर्क था कि आयोग के गठन का प्रावधान भी संविधान में शामिल किया जाना चाहिए, ताकि उसमें परिवर्तन करने के लिए संविधान संशोधन की जरूरत पड़े, जिसके लिए दो-तिहाई बहुमत की जरूरत होती है, जबकि सामान्य कानून में संशोधन सामान्य बहुमत से हो जाता हैं। इन विवादों ने बता दिया है कि कॉलेजियम व्यवस्था असफल हो चुकी है। परंतु दूसरी जो भी व्यवस्था हो, उसमें ऐसा इंतजाम जरूरी है कि सौदेबाजी न हो और सही व्यक्ति जज बने। फिलहाल न्यायमूर्ति काटजू को इस बात का जवाब देना होगा कि उच्चतम न्यायालय से अवकाश ग्रहण करने के बाद भी वह तीन वर्षो तक चुप क्यों रहे? बोले भी तब, जब भारतीय प्रेस परिषद का उनका कार्यकाल समाप्त हो रहा है और जिस जज के बारे में वह बोल रहे हैं, उनका पांच साल पहले ही निधन हो चुका है।
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कॉलेजियम पर सवाल
11-08-14 08
इन दिनों लगातार उच्च न्यायपालिका के जजों की नियुक्ति को लेकर बहस छिड़ी हुई है। सरकार चाहती है कि जजों की नियुक्ति के लिए जो मौजूदा कॉलेजियम व्यवस्था है, उसे बदलकर एक न्यायिक आयोग के जरिये ये नियुक्तियां की जाएं, जिसमें सिर्फ जर्ज नहीं हों, बल्कि न्यायपालिका के बाहर से भी प्रतिष्ठित लोगों को उसमें रखा जाए। यह विचार मौजूदा केंद्र सरकार के साथ नहीं आया है, संप्रग सरकार भी कुछ ऐसा ही इरादा रखती थी और उसने अपनी ओर से पहल भी की थी, जो अपेक्षित नतीजे तक नहीं पहुंच पाई। इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा प्रधान न्यायाधीश आर एस लोढ़ा ने इस विवाद का विरोध किया है। उनका कहना है कि मौजूदा कॉलेजियम व्यवस्था अच्छी तरह से काम कर रही है और इस पर सवाल उठाने से लोगों का न्यायपालिका पर से विश्वास उठ जाएगा। इस बीच सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड न्यायाधीश मरकडेय काटजू ने एकाधिक बार इस मुद्दे पर लिखा है कि किस तरह से उच्च न्यायपालिका में भ्रष्ट जज घुस आए हैं और सबूत मिलने पर भी कुछ प्रधान न्यायाधीशों ने भ्रष्ट जजों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। काटजू का यह कहना है कि न्यायपालिका की साख बचाने के कथित उद्देश्य से भ्रष्ट जजों को बचा लिया जाता है। कई न्यायविद इससे सहमत हैं कि मौजूदा कॉलेजियम व्यवस्था संविधान में जजों की नियुक्ति को लेकर बनाई गई व्यवस्था के अनुरूप नहीं है। उनका तर्क है कि संविधान के अनुच्छेद-124 और 217 के मुताबिक, उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति भारत के प्रधान न्यायाधीश, हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों की सलाह पर राष्ट्रपति करेंगे, यानी सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति नियुक्तियां करेंगे। इससे जाहिर है कि नियुक्ति करने का अधिकार सरकार का है और न्यायाधीशगण उसमें सलाह दे सकते हैं। सन 1981 में इस मामले में एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने भी इसी बात का समर्थन किया था। इसके बाद के दो फैसलों में सुप्रीम कोर्ट ने इससे अलग राय देते हुए कहा कि जजों का चयन प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व में वरिष्ठ जजों का एक कॉलेजियम करेगा, सरकार इस चयन पर आपत्ति जरूर दर्ज करा सकती है, लेकिन अंतिम फैसला कॉलेजियम की करेगा। इसके पीछे मंशा यह रही थी कि राजनीतिक हस्तक्षेप से जजों की नियुक्ति को बचाया जाए और न्यायपालिका की स्वायत्तता की रक्षा की जाए। जानकार मानते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जजों की नियुक्ति में लोकतंत्र के अन्य संस्थानों का भी दखल होना चाहिए और संविधान भी यही कहता है। कॉलेजियम व्यवस्था निहायत अपारदर्शी है, उसमें पक्षपात के आरोप भी सामने आए हैं। यह भी देखने में आया है कि कई अयोग्य या भ्रष्ट जज या तो तरक्की पा गए या उन्हें अयोग्यता या भ्रष्टाचार का खामियाजा भुगतने से बचा लिया गया। जब हम तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं से पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग करते हैं, तो न्यायपालिका भी उनमें शामिल है। जरूरी यह है कि न्यायपालिका की स्वायत्तता भी बनी रहे और संविधान के अनुरूप व्यवस्था भी हो। इस नजरिये से जजों की नियुक्ति के लिए स्वायत्त न्यायिक आयोग बनाना एक अच्छा विचार है। भारत में लोकतंत्र अब ज्यादा परिपक्व हो गया है और अब न्यायपालिका की स्वतंत्रता को ऐसा कोई खतरा नहीं है, जैसा आपातकाल में था। अब खतरा है, तो वह पारदर्शिता की कमी से है। उच्च न्यायपालिका की विश्वसनीयता सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं में सबसे ज्यादा है और नियुक्तियों में पारदर्शिता से वह और बढ़ेगी।
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न्यायपालिका और सरकार

जनसत्ता 03 जुलाई, 2014 :

पूर्व महाधिवक्ता गोपाल सुब्रमण्यम को सर्वोच्च न्यायालय का जज नियुक्त करने की कॉलिजियम की सिफारिश नकार दिए जाने पर प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा की प्रतिक्रिया ने सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है। करीब एक पखवाड़े से चल रहे इस विवाद पर न्यायमूर्ति लोढ़ा ने पहली बार चुप्पी तोड़ी है। गौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत में नए जजों के नाम प्रस्तावित करने वाली समिति यानी कॉलिजियम ने सुब्रमण्यम के अलावा तीन और नामों की भी सिफारिश केंद्र सरकार को भेजी थी। सरकार ने वे तीन नाम तो स्वीकार कर लिए, पर सुब्रमण्यम के लिए हरी झंडी नहीं दी। इससे नाराज सुब्रमण्यम ने जज बनने के लिए दी गई अपनी सहमति वापस ले ली। फिर, यह माना जा रहा था कि यह प्रकरण खत्म हो गया है। लेकिन इस पर प्रधान न्यायाधीश की टिप्पणी ने इसे फिर चर्चा का विषय बना दिया है। उन्होंने सुब्रमण्यम का नाम सिफारिशों से अलग रखने के सरकार के इकतरफा फैसले को आपत्तिजनक करार देते हुए कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, ऐसा हुआ तो वे पद छोड़ने से भी नहीं हिचकेंगे। यों सुब्रमण्यम के नाम पर फिर से विचार किए जाने की अब कोई संभावना नहीं है, क्योंकि वे अपनी सहमति वापस लेने का निर्णय अंतिम रूप से जता चुके हैं, और सरकार के लिए राहत की बात बस यही है। मगर इस मामले में प्रधान न्यायाधीश का बयान एक असामान्य घटना है और निश्चय ही इससे मोदी सरकार की साख को चोट पहुंची है। कानूनमंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि सुब्रमण्यम से संबंधित सिफारिश रोकी नहीं गई, बस उनकी बाबत सत्यापन होने में देर हो रही थी। यह सफाई लीपापोती के अलावा और कुछ नहीं है। सुब्रमण्यम के बारे में नीरा राडिया टेप में उनका जिक्र आने से लेकर कई तरह की बातें फैलाई गर्इं। इससे यही धारणा बनी कि सरकार को उनका दामन पाक-साफ होने को लेकर संदेह है। अगर सरकार का यही रुख था तो अब महज सत्यापन में देरी होने की बात क्यों कही जा रही है! नए जजों की नियुक्ति का हक कॉलिजियम को है, सरकार को सिफारिश भेजना औपचारिकता ही रही है। अलबत्ता इसके पहले भी एक-दो उदाहरण मिल जाएंगे, जब कॉलिजियम के सुझाए नामों से कोई जज बनने से रह गया हो। पर अपवाद को सरकार अपना पक्ष नहीं बना सकती। अगर उसे सुब्रमण्यम को लेकर कुछ शंका थी, तो तथ्यों की बिना पर प्रधान न्यायाधीश से विचार-विमर्श करना चाहिए था। पर ऐसा नहीं किया गया। सुब्रमण्यम ने सोहराबुद््दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमित्र का दायित्व निभाया था। उनसे जुड़ी सिफारिश रोक लिए जाने के पीछे कहीं यही वजह तो नहीं थी? जो हो, पर इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि अमित शाह की अपील खारिज कर दिए जाने के बाद कुछ ही दिनों में संबंधित जज का तबादला हो गया। पिछले दिनों राष्ट्रीय आपदा प्राधिकरण के उपाध्यक्ष पद से सलीम अली को हटना पड़ा, जो सीबीआइ के विशेष निदेशक रह चुके थे और जिन्होंने इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ कांड की जांच की थी। इन अनुभवों के मद््देनजर यह सवाल उठता है कि जज के रूप में सुब्रमण्यम की नियुक्ति न होने देने का रवैया क्या सरकार ने किसी खुंदक के चलते अपनाया, और क्या वह न्यायपालिका पर अपनी पसंद थोपना चाहती है? जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर जब-तब बहस चलती रही है और कॉलिजियम प्रणाली पर सवाल भी उठाए जाते रहे हैं। इसके विकल्प के रूप में ही न्यायिक नियुक्ति एवं जवाबदेही आयोग गठित करने की बात यूपीए सरकार के समय चली थी, जिससे संबंधित विधेयक पास नहीं हो सका। पर जजों की नियुक्ति को सरकार प्रभावित करे, यह तो किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं हो सकता। 
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कोलेजियम पर सवाल
Tuesday,Aug 12,2014

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने यह कह कर कोलेजियम को लेकर जारी बहस को और गति देने का ही काम किया है कि न्यायपालिका को बदनाम करने के लिए भ्रमित करने वाला अभियान चलाया जा रहा है। यह कहना कठिन है कि उनका इशारा किसकी ओर है, लेकिन शायद वह उन खुलासों के संदर्भ में अपनी बात कह रहे थे जो सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व न्यायाधीश मार्कडेय काटजू की ओर से किए जा रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से मार्कडेय काटजू एक के बाद एक ऐसे खुलासे कर रहे हैं जो न्यायपालिका की साख पर असर डालने वाले हैं। उनकी मानें तो सुप्रीम कोर्ट के कई पूर्व न्यायाधीशों ने भ्रष्ट छवि अथवा कथित तौर पर भ्रष्टाचार में लिप्त न्यायाधीशों के खिलाफ वैसी कार्रवाई नहीं की जैसी अपेक्षित थी। हालांकि उनके खुलासों पर यह सवाल उठ रहा है कि आखिर वह इतने दिनों बाद पुराने प्रसंगों को क्यों कुरेद रहे हैं, लेकिन मुश्किल यह है कि उनके आरोपों को निराधार भी नहीं ठहराया जा सकता। मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा इस नतीजे पर भी पहुंचते दिख रहे हैं कि न्यायाधीशों के चयन की मौजूदा कोलेजियम व्यवस्था सही है। वह कोलेजियम की तरफदारी एक ऐसे समय करते दिख रहे हैं जब केंद्र सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक आयोग बनाने की दिशा में आगे बढ़ रही है। इसे संयोग कहें या दुर्योग कि गत दिवस ही सरकार ने कोलेजियम व्यवस्था को खत्म कर छह सदस्यीय एक आयोग के गठन संबंधी संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश किया है। ऐसे किसी आयोग के गठन की कोशिश एक लंबे अर्से से हो रही है, लेकिन किन्हीं कारणों से वह परवान नहीं चढ़ी। देखना यह है कि कोलेजियम के स्थान पर नई व्यवस्था का निर्माण हो पाता है या नहीं?
चूंकि मुख्य न्यायाधीश ने स्पष्ट रूप से यह कहा है कि यदि कोलेजियम गलत है तो हम भी गलत हैं इसलिए संकेत यही मिलता है कि वह अभी भी कोलेजियम व्यवस्था को ही उपयुक्त मान रहे हैं। ऐसी ही राय अन्य अनेक विधि विशेषज्ञों की भी है, लेकिन बहुत से न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में नई व्यवस्था चाह रहे हैं। इसके पीछे कुछ ठोस आधार भी हैं। एक आधार तो मार्कडेय काटजू ही उपलब्ध करा रहे हैं। इसके अतिरिक्त यह भी सामने आ चुका है कि अतीत में कई योग्य न्यायाधीशों का सुप्रीम कोर्ट में चयन नहीं हो सका और कोई नहीं जानता कि ऐसा क्यों हुआ? कोलेजियम व्यवस्था अपारदर्शी भी है और इस व्यवस्था में एक तरह से न्यायाधीश ही न्यायाधीशों का चयन करते हैं। ऐसा अन्य लोकतांत्रिक देशों में मुश्किल से ही देखने को मिलता है। मुख्य न्यायाधीश का नजरिया कुछ भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कोलेजियम व्यवस्था की खामियां सामने आ चुकी हैं। इसके स्थान पर एक आयोग के गठन की जो पहल की जा रही है उसके संदर्भ में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में सरकार की भूमिका ज्यादा प्रभावी न होने पाए। यदि ऐसा होता है तो एक खामी से दूसरी खामी की ओर बढ़ने वाली बाती होगी। यद्यपि ऐसी किसी व्यवस्था का निर्माण करना कठिन है जिसमें तनिक भी खामी न हो, लेकिन ऐसी कोशिश तो हो ही सकती है जिससे गलतियों की गुंजाइश न रहे। बेहतर हो कि सरकार और न्यायपालिका आपस में विचार-विमर्श कर नई व्यवस्था के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ें।
[मुख्य संपादकीय]
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संविधान की कसौटी
15-08-14 

उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति के लिए मौजूदा कॉलेजियम व्यवस्था को खत्म कर नई व्यवस्था बनाने के वास्ते पेश किया गया विधेयक राज्यसभा से भी पारित हो गया। अब इसे विधानसभाओं में भेजा जाएगा। जब कम से कम आधे राज्यों की विधानसभाएं इसे पास कर चुकेंगी, तब यह राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए जाएगा और बाकायदा कानून बन जाएगा। इस बिल के नुक्तों पर बात करने के पहले यह बात कहना जरूरी है कि बड़े दिनों बाद कोई महत्वपूर्ण बिल संसद के दोनों सदनों से पास हुआ है। संप्रग-2 के दौर में ज्यादातर विधायी काम अटके हुए थे और मुश्किल से आम बजट व रेल बजट जैसे अनिवार्य काम दोनों सदनों में हो पाते थे। इस बिल को पेश करना और इसे इतनी जल्दी पास करा लेना यह बताता है कि सरकार तेजी से कामकाज करना चाहती है। इस बिल का पास होना लोकसभा में भाजपा के स्पष्ट बहुमत और विपक्ष की खस्ता हालत को दिखाता है। इससे यह भी पता चलता है कि इस सरकार का संसदीय प्रबंधन चुस्त-दुरुस्त है, क्योंकि राज्यसभा में यह बिल लगभग सर्वसम्मति से पास हो गया, सिर्फ एक सदस्य राम जेठमलानी ने विरोधस्वरूप मतदान में हिस्सा नहीं लिया। यदि संसद के आने वाले सत्रों में भी इतनी तेजी व शांति से कामकाज चलता रहा, तो शायद बहुत सारा महत्वपूर्ण संसदीय काम इस कार्यकाल में हो सकता है। इस बिल को कानून बनाने से पहले सरकार को एक बड़ी चुनौती से निपटना पड़ेगा। और यह चुनौती न्यायपालिका से आएगी, जहां इस बिल के संविधान सम्मत होने की जांच होगी। न्यायिक प्रणाली से जुड़े कई लोग कॉलेजियम व्यवस्था के पक्षधर हैं, तो कई बिल के मौजूदा स्वरूप से नाखुश हैं। संविधानविद फली नरीमन इस बिल से नाखुश हैं, तो पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल घोषणा कर चुके हैं कि वह इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगे। इस बिल को लेकर आपत्तियां मुख्यत: चयन समिति में न्यायपालिका से इतर सदस्यों को लेकर है। कुछ लोगों का कहना है कि कानून मंत्री को इस समिति में नहीं होना चाहिए, क्योंकि कानून मंत्री अमूमन वकील होते हैं और उनके अपने पूर्वाग्रह हो सकते हैं। राम जेठमलानी का कहना है कि बार काउंसिल के प्रतिनिधि का इस समिति में होना जरूरी है, क्योंकि वे लोग उम्मीदवारों के बारे में बेहतर जानते हैं। इस पर भी आपत्ति की गई है कि बिल में प्रावधान है कि अगर समिति के छह में से दो सदस्य किसी नाम से असहमत हैं, तो वह नाम स्वीकृत नहीं होगा। न्यायिक व्यवस्था से जुड़े लोगों को यह लगता है कि इस तरह बाहरी लोग प्रधान न्यायाधीश और दो वरिष्ठ न्यायाधीशों की राय को वीटो कर सकते हैं। संसद में कुछ सदस्यों की राय यह भी थी कि न्यायपालिका में पिछड़े, अनुसूचित जाति-जनजाति के लोगों का प्रतिनिधित्व कम है, इसलिए समिति में इनका प्रतिनिधित्व होना चाहिए। देश के प्रधान न्यायाधीश आर एम लोढा कॉलेजियम व्यवस्था के पक्ष में अपनी राय रख चुके हैं, लेकिन बिल पास होने के बाद सुप्रीम कोर्ट परिसर में हुए स्वतंत्रता दिवस समारोह में उन्होंने इस मुद्दे पर बोलने से परहेज किया। उन्होंने यह कहा कि भारत में विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका में मौजूद लोग एक-दूसरे का सम्मान करते हैं, इतनी परिपक्वता उनमें है। इसी परिपक्वता के भरोसे यह कहा जा सकता है कि जब यह बिल सुप्रीम कोर्ट के सामने आएगा, तो फैसला संविधान के पैमाने पर होगा, न्यायविदों की अपनी राय जो भी हो। सच तो यह भी है कि कोई व्यवस्था निर्दोष नहीं होती, उसे अच्छा या बुरा बनाने में लोगों की नीयत और स्थापित परंपराओं का बड़ा महत्व होता है।
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नियुक्तियों में बढ़ेगी राजनीतिक दखलंदाजी

Sun, 17 Aug 2014

देश की आजादी के बाद से ही न्यायिक प्रणाली स्वतंत्र रूप से बिना किसी दबाव के काम करती रही है। आज के समय के तमाम जजों का चुनाव कोलेजियम प्रणाली से ही हुआ है। इस प्रक्रिया से चुने गए जजों ने बहुत से मामलों में महत्वपूर्ण फैसले बिना किसी दबाव के निष्पक्ष रूप से दिए हैं। मगर एक अर्से से स्वतंत्र न्यायिक प्रणाली राजनीतिक हस्तियों के निशाने पर रही है। उन लोगों की यह मंशा रही है कि किस तरह से न्यायिक तंत्र में अपना दखल पैदा किया जाए। यह बदलाव उसी का परिणाम है। पूर्व में कोलेजियम सिस्टम के तहत जजों का चुनाव करने से पूर्व उनकी जांच का कार्य केंद्र सरकार के अधीन सर्वश्रेष्ठ जांच एजेंसी आइबी द्वारा किया जाता था। उनकी जांच रिपोर्ट के आधार पर जज की नियुक्ति की पात्रता वाले जिस व्यक्ति को क्लीन चिट दी जाती थी। उन्हीं लोगों में से जजों का चुनाव किया जाता था। जस्टिस काटजू के अनुसार कुछ नियुक्तियों में भ्रष्टाचार हुआ। मगर, मेरा मानना है कि यह भ्रष्टाचार कोलेजियम की ओर से नहीं हुआ, बल्कि आइबी द्वारा की गई जांच में हुआ। अब अगर, आइबी किसी तथ्य को छिपा कर किसी व्यक्ति की अच्छी रिपोर्ट दे देती है और वह व्यक्ति बाद में खराब निकलता है तो इसमें कोलेजियम प्रणाली को दोष नहीं देना चाहिए था। गलती सभी से होती है, अगर किसी जज के चुनाव में गलती हुई तो इसका मतलब यह नहीं कि पूरा कोलेजियम सिस्टम ही खराब हो गया और उसे निरस्त कर दिया जाए। अगर किसी जज की नियुक्ति में अनियमितता की बात सामने आई है तो उसके लिए भी राजनीतिक दबाव जिम्मेदार रहा होगा। राजनीतिक दबाव के कारण ही आइबी द्वारा जांच प्रक्रिया में आवेदनकर्ता की कई बार सही रिपोर्ट न देकर कुछ तथ्यों को छिपा लिया जाता है। कोलेजियम सिस्टम को खत्म कर जो न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाया गया है। उसमें भी खामियां हैं। उससे जजों की नियुक्ति स्वतंत्र रूप से न हो सकेगी। इस प्रक्रिया के कारण अभी तक राजनीतिक दखल से दूर रहे न्यायिक तंत्र प्रणाली में भी राजनीतिक दखल पैदा हो जाएगा। जिसमें भ्रष्टाचार की कहीं अधिक आशंका है। जजों की नियुक्ति को स्वतंत्र रखने से न्याय की गुणवत्ता एवं विश्वसनीयता बनी रहती है। लिहाजा जजों के चुनाव के लिए कोलेजियम प्रणाली ही सही है, न कि न्यायिक आयोग।
-अधिवक्ता राजीव जय [चेयरमैन कोआर्डिनेशन काउंसिल आफ हाई कोर्ट एंड आल बार एसोसिएशन, दिल्ली]

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नियुक्ति के प्रावधान

Sun, 17 Aug 2014

दुनिया के विभिन्न देशों में न्यायपालिका के शीर्ष पदों पर नियुक्ति के प्रावधान इस प्रकार हैं-

ब्रिटेन: यहां न्यायपालिका के उच्च पदों वाले जजों को जजेस ऑफ द हाउस ऑफ लॉ‌र्ड्स कहा जाता है। इन सभी पदों के लिए जजों की नियुक्ति संबंधित मंत्री की सलाह पर कार्यकारी राजा करता है। इनमें से लॉ ला‌र्ड्स, द लॉ‌र्ड्स जस्टिस ऑफ अपील, द लॉ‌र्ड्स चीफ जस्टिस, द मास्टर ऑफ द रोल्स एंड द प्रेसीडेंट ऑफ द फेमिली डिवीजन को प्रधानमंत्री मनोनीत करते हैं। आमतौर पर यह माना जाता है कि प्रधानमंत्री को इस काम के लिए लॉर्ड चॉसलर द्वारा दिशा-निर्देश प्राप्त हुआ होगा। हाई कोर्ट के ऑर्डिनरी जजों, सर्किट जजों, रिकॉडर्स एंड डिप्टी हाई कोर्ट और सर्किट कोर्ट जजों को लॉर्ड चांसलर मनोनीत करते हैं। ऑस्ट्रेलिया: हाई कोर्ट और अन्य कोर्टो के जजों की नियुक्ति गवर्नर जनरल इन काउंसिल द्वारा की जाती है। यानी यहां के सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा की जाती है। कनाडा: शीर्ष अदालतों में जजों की नियुक्तियां गवर्नर जनरल द्वारा की जाती है। वैधानिक प्रावधान के अनुसार सुप्रीम कोर्ट का एक मुख्य न्यायाधीश होगा जिसे चीफ जस्टिस ऑफ कनाडा कहा जाएगा। इसके अलावा आठ अन्य जजों की नियुक्ति गवर्नर जनरल इन काउंसिल द्वारा की जाएगी। अमेरिका: सुप्रीम कोर्ट के जजों और मुख्य न्यायाधीश का चयन राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है। सीनेट इस चयन पर अपनी अनुमति देती है। जापान: मुख्य न्यायाधीश को छोड़कर सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्तियां कैबिनेट द्वारा की जाती है। कैबिनेट द्वारा मनोनीत होने के बाद मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राजा करते हैं। न्यायिक सेवा आयोग: ब्रिटेन के उपनिवेश रह चुके कई देश अपने यहां जजों की नियुक्ति के लिए न्यायिक सेवा आयोग का गठन किए हुए हैं। इन देशों के संविधान में इस आयोग का उल्लेख किया गया है। आमतौर पर इस आयोग का मुख्य काम शीर्ष पदों पर जजों की नियुक्तियों को लेकर सलाह देना है। मलावी, युगांडा, केन्या, मलेशिया, जमैका, सिएरा लियोन और त्रिनिदाद जैसे देशों में इससे मिलते जुलते प्रावधान हैं। न्यायिक सेवा आयोग का चेयरमैन मुख्य न्यायाधीश होगा। इस आयोग के चेयरमैन की सहमति से पब्लिक सर्विस कमीशन के चेयरमैन या ऐसे ही किसी दूसरे को इस आयोग का सदस्य बनाया जाएगा।

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दोषपूर्ण व्यवस्था

Thursday,Jul 24,2014

मद्रास उच्च न्यायालय में एक भ्रष्ट न्यायाधीश की नियुक्ति में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भी भूमिका उजागर होने के बाद यह स्वाभाविक है कि वह जवाब दें, लेकिन यह भी साफ है कि उनके स्पष्टीकरण से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। वैसे भी वह या तो गोलमोल जवाब देंगे या फिर गठबंधन राजनीति की कथित मजबूरियों का हवाला देकर अपने को पाक-साफ बताने की कोशिश करेंगे। चूंकि कथित भ्रष्ट न्यायाधीश इस दुनिया में नहीं हैं और राजनीतिक दबाव में उन्हें पदोन्नति देने वाले वाले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी सेवानिवृत्त हो चुके हैं इसलिए इस मामले की तह तक जाने के बजाय ऐसी व्यवस्था करना ज्यादा जरूरी है जिससे भविष्य में उस तरह से न हो सके जैसा नौ बरस पहले हुआ। कोई आश्चर्य नहीं कि उस तरह की नियुक्तियां और हुई हों जैसी मद्रास उच्च न्यायालय में 2005 में हुई थी। ऐसा न भी हुआ हो तो इसमें कोई दो राय नहीं कि न्यायाधीशों को नियुक्त करने की मौजूदा कोलेजियम व्यवस्था दोषपूर्ण है। इस व्यवस्था के दोष एक नहीं अनेक बार सामने आ चुके हैं। सत्तापक्ष और विपक्ष के साथ कानूनी मामलों के विशेषज्ञ भी इससे परिचित हैं कि किस प्रकार कोलेजियम की ओर से योग्य न्यायाधीशों की अनदेखी की गई और उन्हें सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत नहीं किया गया। यह निराशाजनक है कि कोलेजियम व्यवस्था के दोष नजर आ जाने के बावजूद फिलहाल कोई भी यह कहने की स्थिति में नहीं कि वैकल्पिक व्यवस्था का निर्माण कब होगा? कोलेजियम व्यवस्था को खत्म कर राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बनाने की पहल अभी संसद में ही अटकी हुई है। बेहतर हो कि सरकार यह सुनिश्चित करे कि न्यायिक आयोग के गठन की प्रक्रिया आगे बढ़े और दोषपूर्ण कोलेजियम व्यवस्था से छुटकारा मिले। न्यायिक आयोग गठित करते समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि नई व्यवस्था में किसी तरह का अनुचित दखल न हो सके। इसी के साथ यह भी आवश्यक होगा कि न्यायिक क्षेत्र में जो अन्य सुधार अपेक्षित हैं उन पर भी गंभीरता से ध्यान दिया जाए। चूंकि मोदी सरकार ने यह भरोसा दिलाया है कि वह भविष्य की ओर देखेगी, न कि पिछली बातों पर वक्त जाया करेगी इसलिए न्यायिक सुधारों में जो भी सुधार वांछित हैं उन्हें पूरा करने में देर नहीं करनी चाहिए। यह ठीक नहीं कि आर्थिक सुधारों के साथ-साथ चुनावी और राजनीतिक सुधारों पर तो आगे बढ़ा जा रहा है, लेकिन न्यायिक सुधारों के मामले में स्थिति जस की तस है। यह निराशाजनक है कि न्यायिक सुधारों की दिशा में इसलिए आगे नहीं बढ़ा जा पा रहा है, क्योंकि विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका इस संदर्भ में एक-दूसरे को उसकी जिम्मेदारी की याद दिलाने तक सीमित हैं। यह स्थिति बदलनी चाहिए। जब तक न्यायिक सुधारों के लिए विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका मिलकर काम करती नजर नहीं आएंगी तब तक बात बनने वाली नहीं है। मद्रास उच्च न्यायालय में एक न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले ने न्यायिक सुधारों की दिशा में आगे बढ़ने का एक अवसर उपलब्ध कराया है। इन सुधारों की आवश्यकता केवल इसलिए नहीं है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया सुधरे, बल्कि इसलिए भी है कि न्याय का पहिया कुछ तेजी के साथ चले।
[मुख्य संपादकीय]
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न्यायपालिका की आजादी

Sun, 14 Sep 2014

यह किसी से छिपा नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा को कोलेजियम के जरिये न्यायाधीशों की नियुक्ति की मौजूदा व्यवस्था खत्म करने की केंद्र सरकार की पहल रास नहीं आ रही है, लेकिन इसकी उम्मीद शायद ही किसी को हो कि वह इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता छीनने की कोशिश के रूप में देखेंगे। गत दिवस उन्होंने जो कुछ कहा उसका मतलब यही है कि कोलेजियम को खत्म करके न्यायपालिका की आजादी छीनने की कोशिश की जा रही है। उनके मुताबिक चूंकि आम आदमी भी आजाद न्यायपालिका की जरूरत समझने लगा है इसलिए सरकार की कोशिश सफल नहीं हो सकेगी। यह बिल्कुल सही है कि आम जनता स्वतंत्र न्यायपालिका की अहमियत समझती है, लेकिन वह चिंतित तो तब होगी जब वास्तव में न्यायपालिका के पर कतरने की कोशिश हो रही होगी। कोलेजियम व्यवस्था की खामियां जगजाहिर हो चुकी हैं। अनेक विधि विशेषज्ञ इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि इसके जरिये योग्यतम न्यायाधीशों के चयन का लक्ष्य पूरा नहीं हो रहा है। भारत उन देशों में एक है जहां न्यायाधीश ही न्यायाधीशों का चयन करते हैं। ऐसा किसी भी श्रेष्ठ लोकतांत्रिक देशों में नहीं है। नि:संदेह न्यायपालिका को हर हाल में स्वतंत्र रहना चाहिए, लेकिन स्वतंत्रता का मतलब एकाधिकार नहीं होता। इससे शायद ही कोई इन्कार करे कि फिलहाल न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका का एकाधिकार ही है।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं कर सकते कि कोलेजियम व्यवस्था के स्थान पर न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए नई व्यवस्था के निर्माण की कोशिश एक लंबे अर्से से हो रही है। इसी कोशिश का परिणाम रहा कि पिछले दिनों न्यायाधीशों की नियुक्ति की नई व्यवस्था से संबंधित विधेयक को संसद के दोनों सदनों की मंजूरी मिल गई। इस दौरान करीब-करीब सभी राजनीतिक दलों ने इस विधेयक का समर्थन किया। यह ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की तरह से कुछ अन्य विधिवेत्ता भी सरकार की पहल से सहमत नहीं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि दोषपूर्ण कोलेजियम व्यवस्था को बनाए रखा जाए और वह भी तब जब कई मामलों में यह सामने आ चुका है कि न्यायाधीशों का चयन सही तरह से नहीं हुआ। एक तथ्य यह भी है कि कोलेजियम व्यवस्था को पारदर्शी बनाने की कोई पहल नहीं की गई। इसी तरह न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद को समाप्त करने की दिशा में भी कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए। यदि यह समझा जा रहा है कि न्यायपालिका को भ्रष्टाचार से मुक्त रखने की अपील मात्र से सब कुछ सही हो जाएगा तो ऐसा होने वाला नहीं। चूंकि अपने-अपने दायरे में रहते हुए विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका एक-दूसरे पर निर्भर हैं इसलिए बेहतर यही होगा कि आपसी तालमेल और संवाद के जरिये उन समस्याओं को दूर करने की कोशिश की जाए जिनसे न्यायपालिका ग्रस्त नजर आ रही है और जिन्हें लेकर सवाल भी उठते रहते हैं।
[मुख्य संपादकीय]

न्यायपालिका और सरकार

जनसत्ता 03 जुलाई, 2014 : पूर्व महाधिवक्ता गोपाल सुब्रमण्यम को सर्वोच्च न्यायालय का जज नियुक्त करने की कॉलिजियम की सिफारिश नकार दिए जाने पर प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा की प्रतिक्रिया ने सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है। करीब एक पखवाड़े से चल रहे इस विवाद पर न्यायमूर्ति लोढ़ा ने पहली बार चुप्पी तोड़ी है। गौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत में नए जजों के नाम प्रस्तावित करने वाली समिति यानी कॉलिजियम ने सुब्रमण्यम के अलावा तीन और नामों की भी सिफारिश केंद्र सरकार को भेजी थी। सरकार ने वे तीन नाम तो स्वीकार कर लिए, पर सुब्रमण्यम के लिए हरी झंडी नहीं दी। इससे नाराज सुब्रमण्यम ने जज बनने के लिए दी गई अपनी सहमति वापस ले ली। फिर, यह माना जा रहा था कि यह प्रकरण खत्म हो गया है। लेकिन इस पर प्रधान न्यायाधीश की टिप्पणी ने इसे फिर चर्चा का विषय बना दिया है। उन्होंने सुब्रमण्यम का नाम सिफारिशों से अलग रखने के सरकार के इकतरफा फैसले को आपत्तिजनक करार देते हुए कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, ऐसा हुआ तो वे पद छोड़ने से भी नहीं हिचकेंगे।
यों सुब्रमण्यम के नाम पर फिर से विचार किए जाने की अब कोई संभावना नहीं है, क्योंकि वे अपनी सहमति वापस लेने का निर्णय अंतिम रूप से जता चुके हैं, और सरकार के लिए राहत की बात बस यही है। मगर इस मामले में प्रधान न्यायाधीश का बयान एक असामान्य घटना है और निश्चय ही इससे मोदी सरकार की साख को चोट पहुंची है। कानूनमंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि सुब्रमण्यम से संबंधित सिफारिश रोकी नहीं गई, बस उनकी बाबत सत्यापन होने में देर हो रही थी। यह सफाई लीपापोती के अलावा और कुछ नहीं है। सुब्रमण्यम के बारे में नीरा राडिया टेप में उनका जिक्र आने से लेकर कई तरह की बातें फैलाई गर्इं। इससे यही धारणा बनी कि सरकार को उनका दामन पाक-साफ होने को लेकर संदेह है। अगर सरकार का यही रुख था तो अब महज सत्यापन में देरी होने की बात क्यों कही जा रही है! नए जजों की नियुक्ति का हक कॉलिजियम को है, सरकार को सिफारिश भेजना औपचारिकता ही रही है। अलबत्ता इसके पहले भी एक-दो उदाहरण मिल जाएंगे, जब कॉलिजियम के सुझाए नामों से कोई जज बनने से रह गया हो। पर अपवाद को सरकार अपना पक्ष नहीं बना सकती। अगर उसे सुब्रमण्यम को लेकर कुछ शंका थी, तो तथ्यों की बिना पर प्रधान न्यायाधीश से विचार-विमर्श करना चाहिए था। पर ऐसा नहीं किया गया। सुब्रमण्यम ने सोहराबुद््दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमित्र का दायित्व निभाया था। उनसे जुड़ी सिफारिश रोक लिए जाने के पीछे कहीं यही वजह तो नहीं थी?
जो हो, पर इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि अमित शाह की अपील खारिज कर दिए जाने के बाद कुछ ही दिनों में संबंधित जज का तबादला हो गया। पिछले दिनों राष्ट्रीय आपदा प्राधिकरण के उपाध्यक्ष पद से सलीम अली को हटना पड़ा, जो सीबीआइ के विशेष निदेशक रह चुके थे और जिन्होंने इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ कांड की जांच की थी। इन अनुभवों के मद््देनजर यह सवाल उठता है कि जज के रूप में सुब्रमण्यम की नियुक्ति न होने देने का रवैया क्या सरकार ने किसी खुंदक के चलते अपनाया, और क्या वह न्यायपालिका पर अपनी पसंद थोपना चाहती है? जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर जब-तब बहस चलती रही है और कॉलिजियम प्रणाली पर सवाल भी उठाए जाते रहे हैं। इसके विकल्प के रूप में ही न्यायिक नियुक्ति एवं जवाबदेही आयोग गठित करने की बात यूपीए सरकार के समय चली थी, जिससे संबंधित विधेयक पास नहीं हो सका। पर जजों की नियुक्ति को सरकार प्रभावित करे, यह तो किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं हो सकता।















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