Tuesday 23 September 2014

न्यायिक सुधारों की रफ्तार




न्याय न बने अन्याय
Sun, 17 Aug 2014 
संस्था
न्यायपालिका। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे मजबूत अंग। जब-जब जनहित से जुड़े मुद्दों पर लोकतंत्र के अन्य अंगों कार्यपालिका या विधायिका द्वारा कुठाराघात किया गया तो न्यायपालिका ने ही एक कदम आगे बढ़कर उन मसलों को न केवल अंजाम तक पहुंचाया बल्कि अपने और लोकतंत्र के प्रति जनमानस के भरोसे को और मजबूत भी किया। अपने इसी जज्बे और छवि के चलते लोकतंत्र के अन्य स्तंभों की तुलना में भारतीय न्यायपालिका पर सभी नागरिकों की श्रद्धा और विश्वास औरों से कहीं ज्यादा है। सुधार माना जाता है कि किसी लोकतांत्रिक देश और समाज का चहुंमुखी विकास तभी संभव हो पाता है जब सभी क्षेत्र समानुपातिक रूप से सुधरें। आज से करीब चौथाई सदी पहले हम आर्थिक सुधारों का सूत्रपात कर चुके हैं। राजनीतिक सुधारों पर बहस बीच-बीच में न केवल चलती रही है बल्कि कई अहम कदम भी उठाए जा चुके हैं। आजादी के बाद न्यायिक सुधारों की रफ्तार सुस्त रही है। तमाम समितियों, लॉ कमीशन जैसी संस्थाओं की रिपोर्टे इस बाबत आई और अपनी सिफारिशों का पुलिंदा छोड़कर चली गई। न्यायिक क्षेत्र में सुधार की अगुआई को कोई भी सामने नहीं आया। बड़े दिनों बाद न्यायपालिका के बियावान में सुधार की रोशनी दिखी है। शीर्ष न्यायिक पदों की नियुक्तियों में विसंगतियों को दूर करने के लिए कोलेजियम प्रणाली को खत्म करके न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया जा रहा है। न्यायिक क्षेत्र में इस सुधार को मील का पत्थर और क्रांतिकारी कदम सरीखा माना जा रहा है। इसके अलावा अनुपयोगी और अप्रासंगिक कानूनों को खत्म करने की पहल भी इस क्षेत्र में सुधार की एक बानगी की तरह देखी जा रही है।
समाधान
आम जन को सस्ता, सुलभ और त्वरित न्याय न्यायपालिका की जिम्मेदारी है। जनता के अधिकारों की रक्षा करना उसकी जवाबदेही है। विलंबित न्याय, न्याय न मिलने जैसा होता है। सुधारों की सुस्त रफ्तार या यूं कहें कि सुधारों के अभाव में आजादी के छह दशक बाद भी कुछेक लोगों का पूरा जीवन मुकदमेबाजी में बीत जाता है। फिर भी न्याय मयस्सर होने की गारंटी नहीं होती। ऐसे में जन साधारण को न्याय दिलाने की दिशा में तमाम लंबित न्यायिक सुधारों का त्वरित गति से लागू किया जाना हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
अदालतों में जजों की कमी
स्वीकृत क्षमता -- मौजूदा क्षमता -- रिक्तियांसुप्रीम कोर्ट -- 31 -- 29 -- 02
हाई कोर्ट -- 906 -- 640 -- 266
जिला और अधीनस्थ अदालतें -- 19238 -- 14942 -- 4296
मुकदमों का बोझ कोर्ट -- लंबित मामले
सुप्रीम कोर्ट -- 66,349
हाई कोर्ट (सभी 21) -- 45,89,920
[दिसंबर 2013 तक]
जनमत
क्या कोलेजियम के बदले नई व्यवस्था न्यायिक नियुक्ति आयोग न्यायिक सुधार की दिशा में एक बेहतर कदम है?
हां 81 फीसद
नहीं 19 फीसद
क्या देश में न्यायिक सुधार की रफ्तार लोगों को सस्ता, सुलभ न्याय दिलाने के अनुरूप रही है?
हां 40 फीसद
नहीं 60 फीसद
आपकी आवाज
यह कदम कुछ हद तक सही है और कुछ हद तक गलत। आयोग उनकी कार्यशैली, योग्यता आदि जांच सकता है लेकिन नियुक्ति मामला अगर न्यायाधीश को ही सौंप दें तो श्रेष्ठ होगा। - अनिल कुमार सिंह
कोलेजियम व्यवस्था पहले के लिए थी जिसमें भ्रष्टाचार का कीड़ा लग चुका है। इसलिए नई व्यवस्था लाने की जरूरत है। यह निश्चित रूप से प्रभावी होगी। 
-शुभम गुप्ता100@जीमेल.कॉम
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दुरुस्त आयद

जनसत्ता 15 सितंबर, 2014: प्रचलन से बाहर हो चुके कानूनों को रद््द करने की पहल देर से सही, एक दुरुस्त कदम है। ऐसे बहुत सारे कानून हमारी कानूनी किताबों में कायम हैं जो अंगरेजी हुकूमत के दौरान बने थे और जिन्हें बहुत पहले रद््द घोषित कर दिया जाना चाहिए था। यों इनमें से ज्यादातर व्यवहार में लागू नहीं हैं, पर उनका बने रहना कानूनी ढांचे पर बेकार का बोझ है। ये कानून कितने अप्रासंगिक हैं इसका अंदाजा कुछ उदाहरणों से लगाया जा सकता है। मसलन, 1878 में बने एक कानून के मुताबिक अगर सड़क पर पड़ा नोट देख कर सरकार को इसकी खबर नहीं दी तो जेल की सजा काटनी पड़ सकती है। वर्ष 1934 का एक कानून कहता है कि पतंग बनाने, बेचने और उड़ाने के लिए परमिट जरूरी है। सराय अधिनियम, 1887 के मुताबिक लोग किसी भी होटल में पीने के पानी और शौचालय की सुविधा निशुल्क पा सकते हैं। यह सूची बहुत लंबी है जिसमें दो सौ साल पुराने कानून तक शामिल हैं। यों भारत के गणतंत्र घोषित होने के बाद देश का राज-काज हमारे संविधान के अनुसार चलता रहा है, जिसे संविधान सभा ने मंजूरी दी थी। पर औपनिवेशिक जमाने के निशान ये कानून विधिशास्त्र का हिस्सा बने रहें, इसका कोई औचित्य नहीं हो सकता। वाजपेयी सरकार ने 1998 में प्रशासनिक कानूनों की समीक्षा के लिए समिति गठित कर इन्हें खत्म करने की दिशा में कदम उठाया था। उस समिति की सिफारिश पर अप्रचलित चार सौ पंद्रह कानून रद्द घोषित किए गए, पर उससे ज्यादा तादाद में वैसे कानून अब भी रद्द नहीं हो पाए हैं। लिहाजा, मोदी सरकार ने सभी मंत्रालयों से बेकार पड़ चुके कानूनों को चिह्नित करने को कहा है, साथ ही ऐसे कानूनों की समीक्षा के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय में सचिव आर रामानुजन की अध्यक्षता में एक समिति भी गठित की है। सरकार ऐसे कुछ कानूनों को समाप्त करने के लिए पहले ही एक विधेयक लोकसभा में पेश कर चुकी है, जो फिलहाल लंबित है। पर लगता है इस बारे में कई बार संसद की मंजूरी लेने की जरूरत पड़ सकती है, क्योंकि विधि आयोग भी ऐसे कानूनों का विस्तृत अध्ययन कर रहा है। आयोग ने अप्रचलित बहत्तर कानूनों को समाप्त करने की सिफारिश की है। पर यह उसकी अंतरिम रिपोर्ट है। आयोग ने कहा है कि वह किस्तों में यह आकलन पूरा करेगा और चरणबद्ध तरीके से जरूरी कार्रवाई के लिए सरकार को अपनी रिपोर्टें सौंपेगा। अपने अध्ययन के दौरान आयोग ने यह भी पाया कि पिछले कई वर्षों के दौरान काफी संख्या में पारित विनियोग कानून अपना अर्थ खो चुके हैं, पर कानूनी पुस्तकों का अंग बने हुए हैं। कानून-प्रणाली को अवांछित भार से मुक्ति दिलाने का यह उद्यम सराहनीय है। पर इसी के साथ अदालती कामकाज को भी औपनिवेशिक ढर्रें से मुक्त और सरल बनाने की पहल होनी चाहिए। आज भी अदालती दस्तावेज ऐसी भाषा में तैयार किए जाते हैं, जो मुवक्किलों की समझ से परे होते हैं। उच्च न्यायालयों के फैसले अमूमन अंगरेजी में होते हैं, कई राज्यों में तो वहां वकील प्रांतीय भाषा में अपना पक्ष भी नहीं रख पाते। इसके खिलाफ कुछ साल पहले मद्रास हाइकोर्ट के मदुरै खंडपीठ के वकीलों ने कई दिन तक धरना दिया था। औपनिवेशिक नजरिए का एक उदाहरण हाल में तब सामने आया जब चेन्नई में एक जज को धोती धारण किए होने के कारण एक समारोह में शामिल होने से रोक दिया गया। इसकी चौतरफा हुई आलोचना का असर यह हुआ कि तमिलनाडु सरकार ने एक विधेयक लाकर कुछ खास जगहों पर परिधान संबंधी इस चलन पर रोक लगा दी। मगर प्रशासन, पढ़ाई और अदालती कामकाज में अंगरेजी का जो वर्चस्व है, उससे मुक्ति दिलाने की बीड़ा कौन उठाएगा!
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कानून का जंगल

Wed, 24 Sep 2014

मंगल अभियान का साक्षी बनने के लिए बेंगलूर पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए साफ-सफाई के बारे में जो बातें कीं वे इसलिए जरूरी हैं, क्योंकि इसकी आवश्यकता हर क्षेत्र में महसूस की जा रही है। प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक स्थलों पर व्याप्त गंदगी को दूर करने के साथ-साथ कानून के जंगल को भी साफ करने के प्रति भी प्रतिबद्धता जताई। इस प्रतिबद्धता का प्रदर्शन इसलिए होना चाहिए, क्योंकि हमारे देश में जरूरत से ज्यादा कानून बने हुए हैं। हमारे पास हर समस्या के समाधान के लिए कोई न कोई कानून है और फिर भी समस्याएं कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। इसका एक बड़ा कारण कानूनों की जटिलता और उन पर सही ढंग से अमल न होना है। प्रधानमंत्री ने यह सही कहा कि आजादी के बाद से इतने ज्यादा कानून बना दिए गए हैं कि कानून का जंगल बन गया है। यह संतोषजनक है कि ऐसे तमाम कानून चिह्नित कर लिए गए हैं जिनकी कहीं कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है। यह भी ठीक है कि प्रधानमंत्री ऐसे कानूनों को खत्म करने में विशेष दिलचस्पी ले रहे हैं, लेकिन यह समझना कठिन है कि जो काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था वह ठंडे बस्ते में क्यों पड़ा रहा? अप्रासंगिक हो चुके कानूनों की पहचान अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में ही कर ली गई थी, लेकिन कोई नहीं जानता कि उनसे मुक्ति पाने का काम क्यों नहीं किया गया?
यह उम्मीद की जाती है कि देश को सभी अप्रासंगिक कानूनों से छुटकारा मिलेगा, लेकिन बात तब बनेगी जब प्रासंगिक माने जाने वाले कानून प्रभावी बनेंगे। फिलहाल ऐसी स्थिति नहीं है और इसके चलते समस्याओं के समाधान में बाधाएं सामने आती रहती हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं कि कानूनों की अधिकता और उनकी जटिलता के चलते जो काम आसानी से हो जाने चाहिए वे लंबे समय तक अटके रहते हैं। कई बार तो यह भी देखने में आया है कि कानूनों की जटिलता कई अच्छे कामों में भी बाधक बन जाती है। विडंबना यह रही कि हमारे शासकों ने यह मान लिया कि हर तरह की समस्याओं का समाधान नित नए कानून बनाकर किया जा सकता है। इस मानसिकता के चलते कानूनों का जंगल उगा और अब वह एक समस्या बन गया है। कानून के जंगल को साफ करने की आवश्यकता जताते हुए प्रधानमंत्री ने यह भी चुटकी ली कि आम जनता ने देश में फैली राजनीतिक गंदगी को पहले ही साफ कर दिया है, लेकिन सच्चाई यह है कि राजनीति के क्षेत्र में सफाई और सुधार होना शेष है। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री जैसी रुचि सार्वजनिक स्थलों में व्याप्त गंदगी को दूर करने अथवा कानून के जंगल को साफ करने में ले रहे हैं वैसी ही राजनीतिक क्षेत्र में आवश्यक हो चुके सुधारों की दिशा में आगे बढ़ने में भी लेंगे। जब इन सुधारों की दिशा में आगे बढ़ा जाएगा तब सही मायने में राजनीतिक गंदगी दूर होने का मार्ग प्रशस्त होगा।
[मुख्य संपादकीय]


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