Thursday 4 September 2014

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार


न्यायपालिका में भ्रष्टाचार 
Tuesday,Jul 22,2014 

उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कडेय काटजू की ओर से किया गया यह खुलासा सनसनीखेज है कि संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल में संकीर्ण राजनीतिक कारणों से उच्च न्यायालय के एक भ्रष्ट जज का न केवल कार्यकाल बढ़ाया गया, बल्कि उसे पदोन्नत भी किया गया। अपने इस आरोप के जरिये वह उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार के मसले को फिर से सतह पर ले आए हैं। हमारे देश में ऐसा रह-रहकर होता है। किसी न किसी बहाने भ्रष्टाचार का मुद्दा सिर उठाता ही रहता है। इसका कारण यह है कि उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। शासन के अन्य क्षेत्रों की तरह न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की मौजूदगी किसी से छिपी नहीं, लेकिन इस पर केवल चर्चा होकर रह जाती है। मोदी सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस बार ऐसा न हो। इसलिए और भी, क्योंकि यह सरकार भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के जिस वायदे के साथ सत्ता में आई है उस पर लोगों ने भरोसा भी किया है। यह वायदा पूरा होना चाहिए और न्यायपालिका के साथ ही अन्य क्षेत्रों में भी भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कारगर उपाय किए जाने चाहिए। इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता कि इसकी शुरुआत उच्च स्तर से हो। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि नई सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक आयोग बनाने पर विचार कर रही है। यह आयोग मौजूदा कोलेजियम प्रणाली की जगह लेगा। यह काम बहुत दिनों से अटका है और जब यह स्पष्ट हो चुका है कि कोलेजियम प्रणाली ही दोषपूर्ण है तब फिर नई व्यवस्था का निर्माण यथाशीघ्र होना चाहिए। यह ठीक नहीं कि जिन क्षेत्रों में सुधार के कदम उठाए जाने हैं वे वर्षो तक लंबित बने रहें। फिलहाल यह कहना कठिन है कि काटजू के आरोपों पर कोई ठोस जांच हो सकेगी या नहीं। चूंकि उनके आरोपों के दायरे में उच्चतम न्यायालय के तीन पूर्व मुख्य न्यायाधीशों के साथ पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी आ रहे हैं इसलिए किसी न किसी स्तर पर यह स्पष्ट होना ही चाहिए कि काटजू के आरोपों में कितनी सत्यता है? उनकी मानें तो तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रमुक की सरकार कथित भ्रष्ट न्यायाधीश के पक्ष में खड़ी थी और वह तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर भी दबाव डालने में सक्षम रही। यह संभव है, क्योंकि मनमोहन सिंह सरकार द्रमुक के समर्थन पर टिकी हुई थी, लेकिन यह समझना कठिन है कि एक के बाद एक सुप्रीम कोर्ट के तीन मुख्य न्यायाधीश भी संदर्भित जज को क्यों संरक्षण देते रहे? इन सवालों के जवाब मिलने के साथ ही खुद मार्कडेय काटजू को भी कुछ सवालों के जवाब देने चाहिए और सबसे पहला सवाल तो यही है कि 2005 के इस मामले को वह 2014 में क्यों उठा रहे हैं? बेहतर होता कि वह इस मामले को तभी उठाते जब गलत होता हुआ देख रहे थे। क्या यह विचित्र नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश रहने के दौरान भी वह इस गलत काम के समक्ष मूकदर्शक बने रहे? उनका यह कहना सही हो सकता है कि समय नहीं, मामले की गंभीरता महत्वपूर्ण है, लेकिन देश यह भी जानना चाहता है कि इस गंभीर मामले में समय रहते हस्तक्षेप क्यों नहीं किया गया?
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सामने से आएं न्यायमूर्ति

नवभारत टाइम्स | Jul 22, 2014

भारत के पूर्व चीफ जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के एक बड़े मामले को उजागर कर जुडिशरी के चरित्र और उसके कामकाज को लेकर एक गंभीर बहस छेड़ दी है। बात जब निकल ही गई है तो दूर तलक जानी चाहिए। हकीकत को छुपाकर रखने का समय जा चुका है। हमारे यहां हायर जुडिशरी की नियुक्ति का तरीका दोषपूर्ण है और इसके लिए कोई नया रास्ता निकाला जाना चाहिए। जस्टिस काटजू ने अपने एक लेख में खुलासा किया है कि मद्रास हाईकोर्ट में एक जज करप्शन के तमाम आरोपों के बावजूद न सिर्फ अपने पद पर बने रहे बल्कि प्रमोशन पाने में भी सफल हो गए। यह लाभ उन्हें इसलिए मिला क्योंकि उन्हें तमिलनाडु के उन शीर्ष राजनेता की कृपा प्राप्त थी, जिनके सपोर्ट के बगैर यूपीए की पहली सरकार चल ही नहीं सकती थी। काटजू के इस बयान से राजनीतिक हलके में बवाल शुरू हो गया है। उनके इरादे और खुलासे के मौके को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। ये सवाल कुछ गिने-चुने लोगों के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं, लेकिन बात इस मुद्दे पर होनी चाहिए कि न्यायपालिका में कदाचार की जड़ें क्यों गहरा रही हैं। पिछले कुछ समय से भारतीय न्यायपालिका का शिखर विवादों में घिरा हुआ है। समस्या यह है कि हमारे देश में इसको एक पवित्र क्षेत्र माना जाता है और इसके किसी भी पहलू को सार्वजनिक चर्चा से दूर रखा जाता है। इस क्षेत्र को पर्दे में ढककर रखने के कारण ही इसमें सुधार की गति जोर नहीं पकड़ पा रही है और हमारे सिस्टम की बुनियाद खोखली होती जा रही है। कई विशेषज्ञ मानते रहे हैं कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में भारी खामियां हैं। पता नहीं क्यों यह मानकर चला जाता है कि इन कुर्सियों पर बैठने वाला शख्स ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ ही होगा। हमारी व्यवस्था के दूसरे अंगों के शीर्ष पर बैठने वाले लोग कठिन प्रतियोगी परीक्षाओं से चुनकर आते हैं और कई तरह के चेक और बैलेंस की प्रणाली से गुजरते हैं। विधायिका के लोग भले ही कोई परीक्षा न देते हों, पर बीच-बीच में उन्हें जनता की अदालत में जाना होता है और उसके प्रति एक हद तक जवाबदेही भी निभानी पड़ती हैं। लेकिन जजों के मामले में ऐसी बात नहीं है। जो जज न्यायिक सेवा के जरिए आते हैं वे जिला स्तर से आगे नहीं बढ़ पाते। हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति जुडिशरी स्वयं करती है, हालांकि व्यावहारिक रूप से इसमें राज्य सरकार का दखल बहुत ज्यादा रहता है। सभी जानते हैं कि राज्यों में सत्तारूढ़ राजनेता अपने हितों का ध्यान रखने वाले वकीलों को न्याय की ऊंची कुर्सियों तक पहुंचाते हैं। जस्टिस काटजू ने सिर्फ इस जानी-पहचानी बात को सार्वजनिक कर दिया है। आजादी के 67 साल गुजर जाने के बाद अगर हम हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के बारे में सोचने तक को तैयार नहीं हैं तो हमारी व्यवस्था के लिए इससे ज्यादा चिंताजनक बात और क्या हो सकती है? 
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साख और सवाल

जनसत्ता 23 जुलाई, 2014 : सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू के खुलासे से न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर गंभीर सवाल खड़े हुए हैं। काटजू ने कहा है कि मद्रास हाइकोर्ट के एक अतिरिक्त न्यायाधीश को, भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद, न केवल बनाए रखा गया, बल्कि सेवा-विस्तार भी दिया गया। यही नहीं, उन्हें बाद में एक दूसरे उच्च न्यायालय में स्थायी जज बना दिया गया। काटजू ने संबंधित जज पर इस मेहरबानी के लिए तीन पूर्व प्रधान न्यायाधीशों को जिम्मेवार ठहराया है, जिन्होंने बारी-बारी से सर्वोच्च न्यायालय की अगुआई की। गौरतलब है कि उच्च न्यायालयों के जजों की नियुक्ति सर्वोच्च अदालत के तीन वरिष्ठतम जजों का कॉलिजियम करता है। सर्वोच्च्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति करने वाली कॉलिजियम में पांच वरिष्ठतम जज शामिल होते हैं। काटजू के मुताबिक जब वे मद्रास हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे, उन्हें वहां के एक अतिरिक्त न्यायाधीश के बारे में भ्रष्टाचार की शिकायतें मिली थीं। उनके आग्रह पर प्रधान न्यायाधीश ने आइबी से इसकी जांच कराई और आरोपों को सही पाया गया। काटजू का दावा है कि आइबी की इस रिपोर्ट के बारे में सर्वोच्च न्यायालय के उन मुख्य न्यायाधीशों को पता था, जिनके नाम उन्होंने लिए हैं। फिर भी मद्रास हाइकोर्ट के संबंधित अतिरिक्त न्यायाधीश के खिलाफ कार्रवाई करने के बजाय उन्हें सेवा विस्तार और पदोन्नति का लाभ दिया गया। यह सब इसलिए हुआ, क्योंकि यूपीए सरकार को समर्थन दे रही तमिलनाडु की पार्टी ने धमकी दी थी कि अगर उस जज के खिलाफ कोई कार्रवाई की गई तो सरकार गिर सकती है। साफ है कि तमिलनाडु की यह पार्टी द्रमुक थी, जिसके एक नेता को उस जज ने जमानत दी थी। इस प्रकरण में द्रमुक के दामन पर तो दाग लगा ही है, तीन पूर्व मुख्य न्यायाधीशों के साथ-साथ कांग्रेस भी कठघरे में खड़ी नजर आती है, जिसने अपनी सत्ता बचाने के लिए बेजा समझौता किया। 2-जी मामले में द्रमुक के दबाव में आकर मनमोहन सिंह ने दूरसंचार मंत्रालय की कमान दोबारा ए राजा को सौंप दी थी और उनके मनमाने फैसलों की तरफ से आंख मूंदे रहे। काटजू का खुलासा यह बताता है कि द्रमुक को खुश रखने और इस तरह अपनी सरकार बचाने के चक्कर में कांग्रेस कॉलिजियम पर दबाव डालने की हद तक चली गई। क्या तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इससे अनजान थे? सवाल यह भी उठता है कि तब के कॉलिजियम ने सरकार की दखलंदाजी के आगे झुकने के बजाय उसे अस्वीकार क्यों नहीं किया? काटजू के बारे में भी यह सवाल उठा है कि उन्होंने यह रहस्योद्घाटन इतनी देर से क्यों किया? अगर वे इस बात को दस साल से जानते थे, तो अब तक उन्होंने चुप्पी क्यों साधे रखी? खुलासे के लिए वक्त का चुनाव करने को लेकर काटजू के जो भी कारण हों, पर यह बेहद गंभीर मामला है और इसकी जांच होनी चाहिए। फिर सवाल न्यायपालिका और सरकार के रिश्ते का है। यों जजों की नियुक्ति और पदोन्नति की प्रक्रिया हमारे देश में पूरी तरह स्वायत्त रखी गई है, वह न्यायपालिका के ही हाथ में है। लेकिन क्या इसे सरकारें परदे के पीछे प्रभावित कर सकती हैं? गोपाल सुब्रमण्यम के मामले में तो यह प्रत्यक्ष रूप से हुआ। जजों की नियुक्ति और पदोन्नति की प्रक्रिया को और पारदर्शी बनाने की जरूरत है; कॉलिजियम की तरफ से दिए गए नामों पर सरकार की राय लेने की परिपाटी खत्म कर उसका जिम्मा एक बहुदलीय संसदीय समिति को दिया जाना चाहिए। 
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कुछ जवाब जस्टिस काटजू को भी देने हैं.

 संजय दुबे

July 21, 2014 
जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने अपने ताजा ब्लॉग में लिखा है कि वे जब मद्रास हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे तब वर्ष 2004 में वहां के एक अतिरिक्त न्यायाधीश की कई शिकायतें मिलने के बाद उन्होंने देश के मुख्य न्यायाधीश से कहकर इसकी आईबी जांच कराई थी. आईबी की रिपोर्ट ने अतिरिक्त जज को भ्रष्टाचार में लिप्त पाया था, लेकिन इसके बाद भी उन्हें कार्यकाल विस्तार दे दिया गया. जस्टिस काटजू के मुताबिक तब के चीफ जस्टिस आरके लाहोटी ने ऐसा यूपीए की केंद्र सरकार के दबाव में किया था जो खुद डीएमके के दबाव में थी. इस मामले को जस्टिस काटजू जिस समय, जिस तरह से दुनिया के सामने लाए हैं और इसके बाद वे जैसा व्यवहार कर रहे हैं उसके चलते कुछ सवाल उनसे भी पूछे जा सकते हैं. 1- जस्टिस काटजू ने तीन पूर्व मुख्य न्यायाधीशों के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अप्रत्यक्ष लेकिन स्पष्ट तौर पर डीएमके के ऊपर भी आरोप लगाए हैं. एनडीटीवी को दिए साक्षात्कार में उन्होंने तमिलनाडु की ‘वर्तमान’ मुख्यमंत्री जयललिता की तारीफ भी की है कि उन्होंने कभी किसी नियुक्ति आदि के लिए उन पर दबाव नहीं डाला जबकि डीएमके ने उनसे कई बार गलत काम करवाने की कोशिश की. थोड़ा सा अजीब है कि जब कांग्रेस और डीएमके केंद्र और राज्य की सत्ता में थीं तब उन्होंने इस मामले पर कुछ नहीं बोला. अब वे न केवल इन दोनों पार्टियों पर भी बड़े आरोप लगा रहे हैं बल्कि कम से कम एक सत्ताधारी पार्टी और उसकी मुखिया – एआईडीएम और जयललिता – की भूरि-भूरि प्रशंसा भी कर रहे हैं. 2-जस्टिस काटजू के मुताबिक उन्हें बाद में पता लगा कि मनमोहन सिंह जब संयुक्त राष्ट्र की बैठक में हिस्सा लेने के लिए न्यूयॉर्क जा रहे थे और हवाईअड्डे पर थे तब वहां डीएमके के एक मंत्री भी थे. इन मंत्री जी ने प्रधानमंत्री से कहा कि जब तक वे न्यूयॉर्क से लौटकर आएंगे तब तक उन जज साहब को हटाने की वजह से उनकी सरकार गिर चुकी होगी. यह सुनकर मनमोहन सिंह घबरा गए. तब एक कांग्रेसी मंत्री ने उन्हें ढाढस बंधाया कि वे आराम से जाएं और इस मामले को वे सुलटा लेंगे. इसके बाद वे मंत्री महोदय मुख्य न्यायाधीश जस्टिस लाहोटी के पास गए. उनसे कहा कि अगर मद्रास हाईकोर्ट के आरोपित जज को कार्यकाल विस्तार नहीं दिया गया तो सरकार संकट में आ जाएगी. इस पर जस्टिस लाहोटी ने सरकार को आरोपित जज साहब का कार्यकाल बढ़ाने वाला पत्र भेज दिया. जस्टिस काटजू ने इस बारे में अपने ब्लॉग और साक्षात्कार में जिस तरह से लिखा-कहा है वह बड़ा अजीब है. यह ऐसा है कि मानो किसी फिल्म का फ्लैशबैक हो जिसमें कोई पात्र उन चीजों के बारे में भी विस्तार से बता रहा होता है जिनकी जानकारी या तो उसे हो ही नहीं सकती या उतनी और वैसे नहीं हो सकती. जितने विस्तार से जिस तरह से उन्होंने अतिरिक्त जज महोदय को विस्तार दिए जाने का वर्णन किया है वह कोई एक-दो नहीं बल्कि इससे कहीं बहुत ज्यादा और मुख्य पात्रों के बहुत करीबी लोगों के जरिये ही किसी को पता चल सकता था. 3-बजाय सिर्फ यह कहने के कि डीएमके के दबाव में आई केंद्र सरकार के दबाव में मुख्य न्यायाधीश ने आरोपित जज को गलत कार्यकाल विस्तार दिया जस्टिस काटजू अपने ब्लॉग में इसका आंखों-देखा हाल सुनाते हैं. लेकिन जब उनसे यह पूछा जाता है कि वे इस मामले को 10 साल तक दुनिया के सामने क्यों नहीं लाए या अब इसके बारे में क्यों बता रहे हैं तो वे सामने वाले को झिड़कने की हद तक नाराज हो जाते हैं. क्या वे नहीं जानते कि एक गलत तरीके से बनाया गया भ्रष्टाचारी जज देश का कितना नुकसान कर सकता है? क्या वे नहीं जानते कि वह जज अगर आगे जाकर हाईकोर्ट का जज बना तो सुप्रीम कोर्ट का भी बन सकता था और इसके और भी गंभीर परिणाम हो सकते थे? आज केवल इस मामले पर अकादमिक बहसें और विवाद आदि ही हो सकते हैं, लेकिन क्या वे तब कुछ नहीं कर सकते थे जब उस कथित भ्रष्टाचारी जज को देश और समाज का नुकसान करने से रोका जा सकता था? क्यों उन्होंने सिर्फ एक बार मुख्य न्यायाधीश से शिकायत करने के बाद इस मामले पर 10 साल का मौन व्रत रख लिया? 4- माना कि जस्टिस काटजू का उठाया मुद्दा पहले जितना न सही लेकिन आज भी बेहद महत्वपूर्ण है, लेकिन क्या जस्टिस काटजू उसके महत्व को खुद ही कम नहीं कर रहे हैं? गैर-जरूरी तफसील में जाकर, उनसे पूछे जाने वाले सवालों पर भड़ककर क्या वे मुख्य मुद्दे से ध्यान भटकाने का काम नहीं कर रहे हैं? अच्छा होता कि वे अपने आपको थोड़ा संयमित रखके केवल एक जज और जजों की नियुक्ति प्रक्रिया पर ही बात करते और जरूरी होने पर ही राजनीति और उसे साधने वालों को भी बीच में लाते. ऐसे नहीं कि सारा मुद्दा उनके बीच ही फुटबॉल बन जाए.
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कठघरे में न्याय तंत्र

Friday,Jul 25,2014

न्याय और न्यायमूर्ति भारत की श्रद्धा हैं। यहां खंडित मूर्तियों की उपासना नहीं होती। न्याय आदिम अभिलाषा है। अन्याय से छुटकारे के लिए ही राजव्यवस्था का जन्म हुआ। न्याय देना राजव्यवस्था का प्रथम कर्तव्य है। यहां संविधान का राज है। न्यायपालिका स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है। न्यायमूर्तियों को हटाने के लिए महाभियोग जैसी जटिल व्यवस्था है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता अक्षुण्ण बनाई गई है बावजूद इसके भारतीय न्याय व्यवस्था काफी लंबे अर्से से प्रश्नवाचक है। न्यायपालिका के कामकाज पर खुली बहस की परंपरा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के प्रशासनिक व्यय, न्यायाधीशों और कर्मचारियों के वेतन भत्ताों पर संसद में भी तर्क नहीं होते, बजट पर मतदान नहीं होता। यही बात हाईकोर्ट पर भी लागू है। न्यायालयों पर बेशक आमजन की श्रद्धा है, लेकिन भ्रष्टाचार और तमाम अनियमितताओं को लेकर बेचैनी भी है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने मद्रास हाईकोर्ट के एक भ्रष्ट जज का कार्यकाल बढ़ाने और पदोन्नत करने की पोल खोली है। संप्रग सरकार का एक और घोटाला सामने आया है। न्यायपालिका में राजनीतिक हस्तक्षेप की यह सनसनीखेज घटना है। सर्वोच्च न्यायालय के तीन पूर्व मुख्य न्यायाधीश भी घेरे में हैं। इस खुलासे के पहले तीन जजों में से एक विवादित जज गोपाल सुब्रह्मण्यम के नियुक्ति प्रस्ताव को मोदी सरकार ने ही रोक दिया है। न्यायपालिका का अपना तंत्र भी अव्यवस्था का शिकार है। स्वच्छ और पारदर्शी न्यायतंत्र अपरिहार्य है। भारतीय समाज में जटिलताएं बढ़ी हैं। सरकारें अपने अधिकारियों और कर्मचारियों के विरुद्ध भी हजारों मुकदमे लड़ रही हैं। हिंसा, आर्थिक असमानता और शोषण के चलते भी मुकदमों की बाढ़ है। आधुनिक तकनीक के चलते साइबर अपराध भी बढ़े हैं। संस्कृति और आपसी प्रेम का वातावरण घटा है। सरकारें आश्वस्त नहीं करतीं। न्यायपालिका के प्रति आदर है। इसलिए भी मुकदमों के अंबार हैं। यहां 21 हाईकोर्ट हैं, लगभग 30 लाख मुकदमे विचाराधीन हैं। देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट में लगभग 40 हजार मुकदमे हैं और निचली अदालतों में लगभग 2.63 करोड़। उच्च न्यायालयों में 300 जजों के पद रिक्त हैं और निचली अदालतों में लगभग 3300 पद। न्याय मिलने में विलंब हो रहा है। न्याय में विलंब अन्याय होता है। देश में अनेक सुधार चल रहे हैं। आर्थिक सुधारों की आंधी पुरानी है। चुनाव सुधारों की बहस जारी है, लेकिन न्यायिक सुधारों पर कोई ठोस कदम नहीं हुआ। मुकदमों का अंबार एक समस्या है, लेकिन जजों की नियुक्ति की पारदर्शी प्रणाली सबसे बड़ी चुनौती है। केंद्र ने काटजू का आरोप सही पाया है। न्यायदाता की नियुक्ति में ही गड़बड़ी और झोल होंगे तो न्यायतंत्र पर भरोसा कैसे होगा? पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक बार फिर लपेटे में हैं। सच क्या है? डॉ. सिंह को बताना ही चाहिए। उन्होंने अपने एक सहयोगी दल की नाराजगी से बचने के लिए ऐसा काम किया है। कांग्रेस ने ही 1993 में एक जज रामास्वामी को लोकसभा में महाभियोग प्रस्ताव से बचाया था। रामास्वामी को हटाने संबंधी महाभियोग पर कांग्रेस व मुस्लिम लीग के 205 सदस्यों ने मतदान में भाग नहीं लिया। जज नियुक्ति की वर्तमान प्रणाली भरोसेमंद नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति के लिए अलग-अलग 'समूह' हैं। उच्च न्यायालय का यह समूह मुख्य न्यायाधीश व वरिष्ठ न्यायाधीशों से मिलकर बनता है। न्यायिक पद पर दस वर्ष सेवारत रहना अथवा दस वर्ष वकालत का अनुभव जजों की नियुक्ति की न्यूनतम योग्यता है। 'समूह' अभ्यर्थियों के नाम राज्य सरकार को भेजता है। राच्य सरकार प्रारंभिक परीक्षणोपरांत यह प्रस्ताव केंद्रीय विधि मंत्रालय भेजती है। विधि मंत्रालय सुप्रीम कोर्ट भेजता है। सुप्रीम कोर्ट का 'समूह' अंतिम निर्णय कर राष्ट्रपति को भेजता है। 'समूह' के सदस्यों के अलावा भी संबंधित हाईकोर्ट के न्यायाधीशों से राय ली जाती है। हाईकोर्ट में नियुक्ति के लिए दो 'समूह' राय देते हैं। पहले हाईकोर्ट का समूह और फिर सुप्रीम कोर्ट का। सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति के लिए इसी कोर्ट का समूह काम करता है। समूह या कोलेजियम प्रणाली में केंद्र या राच्य सरकार का अभिमत महत्वपूर्ण नहीं है। कहा जा सकता है कि ऐसा न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए जरूरी भी है। असल में 'समूह' की यह पद्धति 9 न्यायाधीशों की एक पीठ के निर्णय से विकसित हुई। जजों की नियुक्ति का संवैधानिक अधिकार राष्ट्रपति का है। संविधान में कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक जज की नियुक्ति राष्ट्रपति करेंगे। वे उच्चतम न्यायालय या हाईकोर्ट के जजों से, जिनसे जरूरी समझते हैं, परामर्श करेंगे। पीठ ने व्याख्या की कि परामर्श का अर्थ सहमति होगा। 'समूह' द्वारा जज नियुक्तिकी प्रणाली पारदर्शी और विश्वसनीय नहीं है। हाईकोर्ट में वकालत करने वाले अधिवक्ताओं का बड़ा भाग हाईकोर्ट का जज बनता है। अधीनस्थ अदालतों के जजों का कोटा कम है। वकालत के चलते स्थानीय स्तर पर अनेक संबंध बनते बिगड़ते हैं। अधिवक्ता का जज बनना अनुचित नहीं है, लेकिन उसकी नियुक्ति अपने राच्य क्षेत्र के बाहर के हाईकोर्ट में होने से निर्णय च्यादा भरोसेमंद होंगे। केंद्र सरकार को इस विकल्प पर विचार करना चाहिए। भारत को अखिल भारतीय न्यायिक सेवा चाहिए। राच्य स्तर पर न्यायिक सेवाएं हैं। मुंसिफ कनिष्ठ जज कड़ी परीक्षा देते हैं। वे जिला जज की कुर्सी तक पहुंचते हुए रिटायर हो जाते हैं। कुछ भाग्यशाली ही हाईकोर्ट तक पहुंचते हैं। भारतीय प्रशासनिक सेवा/विदेश सेवा की तर्ज पर जजों की भर्ती के लिए न्यायिक सेवा का गठन क्यों नहीं हो सकता? अखिल भारतीय परीक्षा से चयनित जज हरेक दृष्टि से सक्षम और योग्य होंगे। जजों के चयन की इससे बेहतर और पारदर्शी दूसरी कोई व्यवस्था नहीं हो सकती। केंद्रीय विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने वर्तमान 'समूह' प्रणाली के स्थान पर राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बनाने की घोषणा की है। संप्रग सरकार ने भी नया 'न्यायिक नियुक्ति आयोग' बनाने का विधेयक पिछले साल अगस्त में पेश किया था। लोकसभा भंग हो जाने के कारण रुक गया। उम्मीद है कि न्यायतंत्र को चुस्त करने संबंधी कानून अतिशीघ्र पारित होगा। न्याय आधारभूत आवश्यकता है। न्याय होता दिखाई पड़ना और भी अपरिहार्य। भारतीय न्यायपालिका संयुक्त राच्य अमेरिका और इंग्लैंड से भी च्यादा शक्तिशाली है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय संविधान का संरक्षक है। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट कार्यपालिका को परामर्श नहीं देता। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय राष्ट्रपति को परामर्श भी देता है। इंग्लैंड व अमेरिका में न्यायमूर्तियों की नियुक्ति कार्यपालिका ही करती है। भारत में भी समूचे न्याय तंत्र में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है।
[लेखक हृदयनारायण दीक्षित, उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं]

मर्यादा के खिलाफ

:17-09-14 08


इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अशालीन आचरण और दुर्व्यवहार के आरोप में कुछ ट्रेनी जजों को नौकरी से हटाने की सिफारिश की है। ये लोग लखनऊ के न्यायिक शिक्षा और शोध संस्थान में प्रशिक्षण के लिए भेजे गए थे और इन पर आरोप है कि एक रेस्तरां में शराब पीकर इन्होंने अशालीन आचरण किया था। हाईकोर्ट ने इस मामले की जांच के लिए एक कमेटी बनाई थी, जिसकी रिपोर्ट में इस आरोप की पुष्टि हुई और इसके बाद इन ट्रेनी जजों को हाईकोर्ट ने हटाने की सिफारिश की है। हाईकोर्ट की इस कार्रवाई से न्यायपालिका में लोगों का यकीन बढ़ेगा और निचली अदालतों में काम करने वाले न्यायिक अधिकारियों को भी अनुशासित रहने का संदेश मिलेगा। जाहिर है, इस एक कांड से समूची न्यायपालिका के बारे में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता, लेकिन यह तो आम तौर पर दिखता है कि निचले स्तर पर न्यायपालिका में बहुत सुधार की गुंजाइश है। काफी हद तक यह समस्या न्यायपालिका की नहीं, बल्कि हमारे पूरे समाज की कही जा सकती है। जज भी समाज के ही अंग हैं, इसलिए यह समस्या न्यायपालिका में भी दिखाई देती है। हमारे समाज में कानून के पालन को लेकर बहुत शिथिलता है और अक्सर कानून का पालन न करने को सामाजिक हैसियत का मानक मान लिया जाता है। वीआईपी संस्कृति का मूल सिद्धांत ही यह है कि जिसे सामान्य नियम-कानून नहीं पालन करने होते, वह महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है। छोटे शहरों, कस्बों में सरकारी अफसरों की हैसियत बहुत बड़ी होती है और जज भी उन्हीं हैसियत वाले लोगों में शामिल होते हैं। ऐसे में, अगर कुछ जज यह मान लें कि वे तमाम सामाजिक मर्यादाओं से भी ऊपर हैं, तो यह हो सकता है। माना यह जाना चाहिए कि जितने ज्यादा जिम्मेदार पद पर कोई व्यक्ति है, उस पर कानून के पालन की जिम्मेदारी भी उतनी ही ज्यादा है। खास तौर से जिन लोगों पर कानून की रक्षा करने और दूसरों से कानून का पालन करवाने की जिम्मेदारी है, उन्हें तो इस मामले में बहुत ज्यादा सतर्क होना चाहिए। लेकिन वास्तव में, इससे बिल्कुल उल्टा होता है। एक समस्या की ओर कई वरिष्ठ जज और न्यायविद ध्यान दिला चुके हैं कि न्यायपालिका में निचले स्तर पर अच्छे जज नहीं मिलते। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि अच्छे न्यायिक शिक्षा संस्थानों से निकले अच्छे छात्र न्यायपालिका में नौकरी करना पसंद नहीं करते, क्योंकि उन्हें कामकाज की परिस्थितियां और आमदनी, दोनों ही आकर्षक नहीं लगतीं। नेशनल लॉ इंस्टिट्यूट को तो बनाया ही इसलिए गया था कि अच्छे स्तर के जज और वकील वहां से निकल सकें, लेकिन देखा यह गया है कि वहां से निकले ज्यादातर छात्र कॉरपोरेट लॉ में चल जाते हैं। अन्य प्रतिष्ठित संस्थानों के छात्र भी बजाय जज बनने के प्रैक्टिस करना पसंद करते हैं। जजों की चुनाव प्रक्रिया में भी कई खामियां हैं, जिन्हें दूर किया जाना जरूरी है, ताकि हर स्तर पर बेहतर गुणवत्ता के जज मिल सकें। दुर्व्यवहार के मामले न्यायपालिका में हर स्तर पर अब सामने आ रहे हैं। इसकी वजह यह नहीं लगती कि ऐसे मामले बढ़ गए हैं, बल्कि शायद यह है कि लोग अब इसकी शिकायत करने का साहस जुटाने लगे हैं। यहां तक कि हाल के दिनों में महिलाओं से भी दुर्व्यवहार के कई मामले सामने आए हैं, लेकिन अब तक इस मामले में लोगों को शिक्षित करने और शिकायत निवारण का तंत्र विकसित करने की मुकम्मल कोशिशें नहीं हुई हैं। यह भी एक अजीब बात है कि न्यायपालिका को लेकर ही तरह-तरह के मामले सामने आ रहे हैं। सवाल न्यायपालिका की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता का है, इसलिए ऐसे मामलों में सख्त कार्रवाई जरूरी है।



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