Tuesday 23 September 2014

राष्ट्रीय न्यायिक आयोग




राष्ट्रीय न्यायिक आयोग

Sun, 17 Aug 2014

संयोजन और सदस्य
आयोग में कुल छह सदस्य होंगे। भारत के मुख्य न्यायाधीश इसके अध्यक्ष होंगे। सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ जज सदस्य होंगे। कानून मंत्री पदेन सदस्य होंगे। दो प्रबुद्ध नागरिक सदस्य होंगे, जिनका चयन प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में नेता विपक्ष वाली तीन सदस्यीय समिति करेगी। अगर लोकसभा में नेता विपक्ष नहीं होगा तो सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता चयन समिति में होगा। दो प्रबुद्ध व्यक्तियों में से एक सदस्य एससी-एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यक या महिला वर्ग से होगा।
आयोग का काम
* राष्ट्रीय न्यायिक आयोग भारत के मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीश और हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश व अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति की सिफारिश करेगा।
* हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के स्थानांतरण की सिफारिश करेगा।
* यह सुनिश्चित करेगा कि जिसकी सिफारिश की गई है वह व्यक्ति योग्य और निष्ठावान हो।
कोलेजियम व्यवस्था
न्यायपालिका के शीर्ष पदों यानी सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति व स्थानांतरण का निर्धारण करने वाला एक फोरम है। यह प्रक्रिया 1993 से लागू है।
सुप्रीम कोर्ट के लिए
मुख्य न्यायाधीश सहित चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों से बना कोलेजियम किसी जज की नियुक्ति की अनुशंसा करता है। यह सिफारिश विचार और स्वीकृति के लिए प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को भेजी जाती है। नियुक्त प्रक्रिया में लगने वाला औसत समय 1 माह।
हाई कोर्ट के लिए
संबंधित हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश कोलेजियम से सलाह मशविरे के बाद प्रस्ताव राज्य सरकार को भेजते हैं। फिर देश के मुख्य न्यायाधीश के पास यह प्रस्ताव आता है। बाद में इसे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के पास विचार और स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। नियुक्ति में लगने वाला औसत समय 6 माह।
जजों का चयन
* मुख्य न्यायाधीश पद के लिए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम न्यायाधीश के नाम की सिफारिश करेगा।
* तय नियमों और प्रावधानों के मुताबिक वरिष्ठता व अन्य योग्यताओं और पद के लिए उपयुक्तता को ध्यान में रखते हुए उपलब्ध योग्य न्यायाधीशों में से सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के लिए सिफारिश करेगा।
* आयोग वरिष्ठता क्रम को ध्यान में रखते हुए हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पद पर नियुक्ति की सिफारिश करेगा। इसमें मेरिट व अन्य मानदंडों का भी ध्यान रखेगा।
* राष्ट्रपति चाहें तो नियुक्ति की सिफारिश पुनर्विचार के लिए आयोग को वापस भेज सकते हैं, लेकिन अगर आयोग ने पुनर्विचार के बाद एकराय से अपनी सिफारिश पर फिर मुहर लगा दी तो राष्ट्रपति उस सिफारिश के आधार पर नियुक्ति करेंगे।
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जरूरी है न्यायिक आयोग
Thu, 04 Sep 2014 

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के लिए संसद द्वारा बनाया हुआ बिल एक सराहनीय कार्य है। अब जजों की नियुक्ति जनता की इच्छा से होगी। जनतंत्र में जनता सर्वोच्च है और यदि ऐसा नहीं है तो कहीं न कहीं असंतुलन जरूर है। सरकार के तीनों अंग- न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका जनता की इच्छानुसार चलते हैं। संसद जनता की इच्छाओं का प्रतिफल है अत: इसके कृत्य जनता के ही हैं। संविधान की धारा 124 में साफ लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट के जज की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। राष्ट्रपति हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की सलाह ले सकते हैं। 1982 में सुप्रीम कोर्ट ने फ‌र्स्ट जज मामले में यह निर्णय दिया था कि राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश के सलाह से करेंगे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह इसके लिए बाध्य होंगे। 1993 में सेकंड जज मामले में सलाह शब्द की व्याख्या पहले से भिन्न कर दी गई और कहा गया कि मुख्य न्यायाधीश द्वारा दी गई सलाह राष्ट्रपति को माननी पड़ेगी। थर्ड जज मामले में 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने कोलेजियम की व्यवस्था की जिससे जजों की नियुक्ति का नया प्रावधान बना। इस तरह हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट कार्यपालिका व विधायिका से स्वतंत्र हो गई। किसी भी लोकतांत्रिक देश में ऐसी व्यवस्था नहीं है।
प्रश्न उठता है कि जब न्यायपालिका इतनी स्वतंत्र हो गई तो क्यों लगभग तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं? क्या एक साधारण व्यक्ति नामी वकील को अपना मुकदमा लड़ने की फीस दे सकता है? क्या यह सच नहीं है कि राजीव गांधी की हत्या जैसे मामले में भी अंतिम सजा सुनाने में लगभग 20 साल लग गए। जब ऐसे मामलों में निर्णय आने में इतना समय लग रहा है तो आम आदमी के साथ क्या हो रहा होगा? जब न्यायपालिका स्वतंत्र है और किसी तरीके का हस्तक्षेप नहीं है तब निर्णय देने में इतना समय क्यों लगता है? जब न्यायपालिका अपने निर्णय से कार्यपालिका एवं विधायिका की शक्ति छीन सकती है तो अपने आप में सुधार करने में मुश्किल क्यों? अब तो परियोजना लगाने और प्रशासनिक कार्य में भी न्यायपालिका का हस्तक्षेप हो गया है। ट्रांसफर, काला धन आदि मामलों में भी न्यायपालिका का दखल है। न्यायपालिका का दायित्व है कि वह कानून की व्याख्या करते हुए उसे लागू कराने का कार्य करे न कि बनाने का। आज सबसे ज्यादा कमजोरी छुपी है तो न्यायपालिका में। अवमानना के डर से अंदर की सच्चाई बाहर नहीं आ पाती तो लोग सोचते हैं कि वहां सब कुछ ठीक है। चूंकि सरकार के दूसरे अंग जैसे कार्यपालिका और विधायिका के बारे में गोपनीयता नहीं बरती जाती और न ही आलोचना करने में कोई डर है, इसलिए वहां गंदगी ज्यादा दिखती है। जिस दिन अमेरिका जैसी व्यवस्था भारत में होगी उस दिन भारत की भी न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका की तरह दिखने लगेगी। वहां पर तो जज की नियुक्ति के पहले ही उनका नाम सार्वजनिक चर्चा में ला दिया जाता है और लोग खुलकर अपनी राय देते हैं। इस तरह तैनाती से पहले उन्हें अग्निपरीक्षा से गुजरना होता है।
आश्चर्य होता है कि हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट में बड़े वकीलों को प्रति पैरवी लाखों रुपये देने पड़ते हैं तो भी जनता में इसकी आस्था बनी हुई है। लेकिन ऐसा कब तक चलेगा? न्यायपालिका में आस्था का दूसरा कारण यह है कि कार्यपालिका और विधायिका में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। अक्सर न्यायपालिका का भी असली चेहरा सामने आ जाता है जैसे वरिष्ठ अधिवक्ता शांति भूषण द्वारा लगाए गए आठ मुख्य न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप। यौन उत्पीड़न के मामले में भी कुछ जजों पर आरोप लगे। इनके पास अवमानना का अधिकार न होता तो अब तक कार्यपालिका और विधायिका जैसी बदनामी इनकी भी हो गई होती। वर्तमान सरकार को धन्यवाद देना चाहिए कि उसने न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाने का बिल पास करा लिया। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू का योगदान भी भुलाया नहीं जा सकता है। उनकी बेबाकी से इस बिल को पास करने में संसद को बल मिला। फली एस. नरीमन जैसे वरिष्ठ अधिवक्ता इस बिल के पास होने के विरोध में हैं। चूंकि ये लोग कुलीन घराने से आते हैं इसलिए चाहते हैं कि जनता नहीं, बल्कि इन चंद लोगों का आधिपत्य बना रहे। हर मामले में अमेरिका और विकसित देशों का उदाहरण देते हुए थकते नहीं, लेकिन जजों की नियुक्ति के मामले में दोहरा चरित्र क्यों? अमेरिका में सीनेट कमेटी जजों की नियुक्ति करती है। इंग्लैंड में सेलेक्शन के माध्यम से और जर्मनी में संसद के दोनों सदनों द्वारा। 121वें संवैधानिक संशोधन की वजह से संविधान की धारा 124, 217 में परिवर्तन किए गए हैं ताकि आयोग का गठन हो सके। कुलीन लोगों का कहना है कि इससे नौ जजों की पीठ केशवानंद भारती के फैसले का उल्लंघन होगा। प्रश्न है कि क्या संविधान सभा और संसद के ऊपर हैं केशवानंद भारती? गलत बयानबाजी की जा रही है कि इससे न्यायिक प्रक्रिया की स्वतंत्रता पर असर पड़ेगा। हमें समझना चाहिए कि जनता की इच्छा सर्वोपरि होती है।
अब नई बहस छिड़ गई है कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश होने की योग्यता वरिष्ठता होगी या कोई और आधार। संविधान में कहीं ऐसा नहीं है कि वरिष्ठ जज ही मुख्य न्यायाधीश हो सकता है। अमेरिका में भी ऐसा नहीं है। वहां ऐसे जज भी मुख्य न्यायाधीश बने जो सुप्रीम कोर्ट के जज भी नहीं थे। क्या यह कोई बता सकता है कि जज की नियुक्ति की योग्यता क्या है? कौन सी ऐसी एजेंसी है जो इनके मेरिट को तय कर सकती है? एक अन्य समाधान यह है कि अखिल भारतीय ज्यूडिशियल सर्विसेज लागू हो ताकि अच्छी प्रतिभाएं वहां जाएं। वर्तमान परिस्थिति में न्यायिक आयोग की बहुत आवश्यकता है और यह सुनकर आश्चर्य होता है कि लोग इसे न्यायपालिका में चुनौती देने जा रहे हैं। तो ऐसे में देश को कौन चलाएगा? जनता की इच्छा या न्यायपालिका। दुनिया में कहीं भी जजों की नियुक्ति जज नहीं करते। केवल भारत में ऐसा होता है इसलिए इसे समाप्त कर देना ही उचित है।
[लेखक डॉ. उदित राज, लोकसभा के सदस्य हैं]

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