Wednesday 16 July 2014

अदालतों पर मुकदमों का बोझ

न्याय का तंत्र 

Wednesday, 19 February 2014

जनसत्ता 19 फरवरी, 2014 : अपने देश में अदालतों पर मुकदमों का जितना बोझ है उतना दुनिया में कहीं और नहीं है। देश भर की अदालतों में लंबित मामलों की तादाद तीन करोड़ से ऊपर पहुंच चुकी है। अगर मौजूदा गति से मुकदमों का निस्तारण होता रहे, तो वह दिन दूर नहीं, जब हमारा न्यायिक ढांचा बुरी तरह चरमरा जाएगा। इसलिए मुकदमों के तेजी से निपटारे के लिए विशेष प्रयास जरूरी हैं। लंबित मामलों की तादाद बढ़ते जाने का एक प्रमुख कारण यह है कि हमारा न्यायिक तंत्र निहायत अपर्याप्त है। आबादी के अनुपात में जजों की संख्या बहुत कम है। विधि आयोग अपनी अनेक रिपोर्टों में इस संख्या को कई गुना बढ़ाने की सिफारिश कर चुका है। पर उसकी सिफारिश धूल खाती रही है। देर से ही सही, केंद्र सरकार ने न्यायाधीशों की संख्या में बढ़ोतरी की मांग पर सकारात्मक रुख दिखाया है। केंद्रीय कानूनमंत्री कपिल सिब्बल ने उच्च न्यायालयों में जजों की संख्या में पच्चीस फीसद की बढ़ोतरी करने के लिए ढांचागत सुविधाएं मुहैया कराने की बाबत राज्य सरकारों को पत्र लिखा है।  गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी सदाशिवम ने इस सिलसिले में पिछले दिनों प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था। उन्होंने प्रधानमंत्री को याद दिलाया कि पिछले साल अप्रैल में उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों के संयुक्त सम्मेलन में तब के कानूनमंत्री अश्वनी कुमार ने जजों की संख्या बढ़ाने की मांग पर हामी भरी थी। उच्च न्यायालयों में कुल मिलाकर जजों के नौ सौ छह पद हैं। पच्चीस फीसद की बढ़ोतरी होने पर सवा दो सौ पद बढ़ जाएंगे। पर दो सौ से ज्यादा स्वीकृत पद खाली हैं। जबकि चौबीस राज्यों में स्थित देश भर के उच्च न्यायालयों में कुल करीब चालीस लाख मामले लंबित हैं। इस चिंताजनक स्थिति के बावजूद खाली पदों पर समय से नियुक्तियां क्यों नहीं हो पाती हैं? अगर रिक्त पद समय से नहीं भरे जाएंगे तो नए पद सृजित करने से होने वाला लाभ बेमानी हो जाएगा। यही हालत सर्वोच्च न्यायालय की भी रही है। पर दो जजों की रिकार्ड समय में हुई नियुक्ति से काफी समय बाद सर्वोच्च अदालत में न्यायाधीश का कोई पद रिक्त नहीं है। खाली पदों को भरने के अलावा न्यायमूर्ति पी सदाशिवम ने अपने कार्यकाल में मुकदमों के तेजी से निपटारे पर भी जोर दिया है। निचली अदालतों के स्तर पर इस तरह की सक्रियता की और ज्यादा जरूरत है। लेकिन न्याय तंत्र की क्षमता को संतोषजनक बनाने के लिए जजों की संख्या बढ़ाने के अलावा और भी कई उपाय करने होंगे। कानूनविद फली एस नरीमन ने यह सुझाव दिया था कि निगरानी की ऐसी व्यवस्था की जाए जिससे पता चलता रहे कि कोई मुकदमा किस वजह से किस स्तर पर अटका हुआ है। बहुत-से कामों का कंप्यूटरीकरण इसमें मददगार हो सकता है। यह बेहद अफसोस की बात है कि निचली अदालतें पुराने घिसे-पिटे ढर्रे पर काम कर रही हैं। तकनीक का इस्तेमाल बढ़ाने के साथ ही अदालतों की कार्य संस्कृति भी बदलनी होगी, जो जब-तब हड़ताल और बिना किसी ठोस कारण के तारीख पर तारीख की कवायद में फंसी रहती हैं। इसके अलावा, एक बड़ा तकाजा यह है कि विचाराधीन कैदियों की संख्या में कमी लाई जाए। जेलों में बंद लोगों में करीब सत्तर फीसद विचाराधीन कैदी हैं। उनके मामलों की समीक्षा की जानी चाहिए, क्योंकि बहुत-से लोग अपने ऊपर लगे आरोपों की संभावित सजा पूरी कर चुके होते हैं, फिर भी फैसले के इंतजार में वे जेल में सड़ते रहते हैं। फिर, लाखों मुकदमे जमीन के झगड़ों से संबंधित होते हैं। राज्य सरकारें भूमि रिकार्ड को दुरुस्त और पारदर्शी बना कर ऐसे मामलों में कमी ला सकती हैं। प्रशासन के स्तर पर शिकायतों पर कार्रवाई न होना भी बहुत-से मुकदमों की वजह बनता है। जाहिर है, प्रशासन सुधार के बिना न्यायिक सुधार हमेशा अधूरा रहेगा।
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सजा के बगैर

जनसत्ता 2 सितंबर, 2014: भारत में अदालतों पर मुकदमों का जैसा बोझ है वैसा दुनिया में कहीं और नहीं होगा। देश भर में कुल लंबित मामलों की तादाद सवा तीन करोड़ तक पहुंच चुकी है। मुकदमे बरसों-बरस खिंचते रहते हैं और यह हमारी न्यायिक व्यवस्था की सबसे बड़ी पहचान बन चुका है। वादी-प्रतिवादी अदालतों के चक्कर काटते और अपना पैसा और समय गंवाते रहते हैं। पर इससे भी बड़ी त्रासदी वे लोग भुगतते हैं जो अपने खिलाफ चल रहे मुकदमे में फैसले का इंतजार करते हुए कैदी का जीवन जीने को अभिशप्त होते हैं। बहुतों के लिए यह इंतजार अंतहीन साबित होता है। अगर किसी ने कोई जुर्म किया है तो उसकी सजा उसे भुगतनी ही होगी। पर विडंबना यह है कि बहुत-से लोग बिना दोष साबित हुए जेल में सड़ते रहते हैं। कुल कैदियों में इन्हीं की तादाद ज्यादा है। सजायाफ्ता कैदी एक तिहाई हैं, बाकी ऐसे हैं जिनके मामले में अदालत ने कोई फैसला नहीं सुनाया है। फिर, विचाराधीन कैदियों में ऐसे लोग भी हैं जो अपने ऊपर लगे आरोप की संभावित अधिकतम सजा का अधिकांश समय जेल में बिता चुके हैं, कुछ तो संभावित सजा की अवधि बीत जाने के बाद भी बंद रहते हैं। मानवाधिकारों की इससे ज्यादा दुर्दशा और क्या होगी! विचाराधीन कैदियों का मसला कई बार उठा है, पर उसे सुलझाने के लिए कुछ खास नहीं हो पाया। अब एक बार फिर इस दिशा में पहल की उम्मीद जगी है। विचाराधीन कैदियों की बाबत प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा के चिंता जताने के बाद केंद्र सरकार ने संकेत दिए हैं कि वैसे कैदियों को निजी मुचलके पर रिहा किया जा सकता है जिनकी संभावित सजा पूरी हो चुकी है या जो उसका आधा समय जेल में बिता चुके हैं। इससे जहां हजारों विचाराधीन कैदियों और साथ ही उनके परिजनों को बेजा यंत्रणा से मुक्ति मिलेगी वहीं जेलों की व्यवस्था भी सुधारी जा सकेगी जिन पर अनावश्यक रूप से उनकी क्षमता से बहुत ज्यादा कैदियों को रखने का बोझ है। लंबित मामलों की तादाद भी घटाई जा सकेगी। दंड प्रक्रिया संहिता इसमें बाधक नहीं है, अगर हो तो कानून में अपेक्षित संशोधन जरूर किया जाना चाहिए। अलबत्ता विधिमंत्री ने कहा है कि अदालत का फैसला आए बिना रिहाई की छूट मृत्युदंड या आजीवन कारावास के संभावित मामलों में नहीं होगी। उन्होंने एक ऐसा डाटाबेस बनाने का भरोसा दिलाया है जो कैदी के जेल में पहुंचने से लेकर उससे संबंधित सारी सूचनाएं मुहैया कराए, ताकि किसी ने अपनी संभावित सजा का कितना समय जेल में बिताया है यह फौरन जाना जा सके। देश भर की जेलों में कुल 3.81 लाख कैदी हैं। इनमें विचाराधीन कैदी करीब 2.54 लाख हैं, यानी कुल कैदियों के दो तिहाई। विचाराधीन कैदियों की इतनी बड़ी संख्या के पीछे निश्चय ही एक बड़ा कारण न्यायिक प्रक्रिया का बेहद सुस्त होना है, पर इसका एक सामाजिक आयाम भी है। आदिवासियों, अनुसूचित जनजातियों और दूसरे कमजोर तबकों के बहुत-से लोग झूठे मामलों में फंसा दिए जाते हैं। फिर उनके लिए कानूनी कठिनाइयों से पार पाना और अपनी रिहाई का रास्ता साफ करना आसान नहीं होता। जबकि रसूख वाले आरोपियों पर हाथ डालने से पुलिस आमतौर पर बचती है, कई मामलों में सबूत भी बेहद कमजोर कर दिए जाते हैं। लिहाजा, यह मसला न्यायिक सुधार के अलावा पुलिस सुधार से भी जुड़ा हुआ है।

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न्याय का तंत्र

जनसत्ता 12 जुलाई, 2014 :

भारत में अदालतों पर मुकदमों का जैसा बोझ है, वैसा दुनिया में कहीं और नहीं। देश भर में कुल लंबित मुकदमों की तादाद सवा तीन करोड़ तक पहुंच चुकी है। मुकदमे बरसों-बरस खिंचते रहते हैं और वादी-प्रतिवादी अदालतों के चक्कर काटते अपना पैसा और समय गंवाते रहते हैं। मुकदमों का खिंचते रहना भारतीय न्याय-व्यवस्था की सबसे बड़ी पहचान बन चुका है। इस सूरत को बदलने के लिए विधि आयोग अपनी हर रिपोर्ट में कुछ सुझाव देता आया है। लेकिन उसकी सिफारिशों को कभी गंभीरता से नहीं लिया गया। आयोग ने अपनी एक ताजा रिपोर्ट में जजों की संख्या बढ़ाने की फिर से वकालत की है। पिछले दिनों कानूनमंत्री रविशंकर प्रसाद को सौंपी गई इस रिपोर्ट में आयोग ने यह भी कहा है कि मुकदमों के निपटारे की समय-सीमा तय की जानी चाहिए। वर्तमान स्थिति में समयबद्ध फैसले की कल्पना करना भी मुश्किल लगता है। इसलिए पहला तकाजा यह है कि न्यायिक तंत्र की क्षमता बढ़ाई जाए। अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए बुनियादी ढांचे के विस्तार पर काफी जोर दिया जाता रहा है, पर यह नीति न्यायिक ढांचे को लेकर अब तक नहीं अपनाई गई है। 
भारत में आबादी के अनुपात में जजों की संख्या काफी कम है, विकसित देशों की तुलना में कई गुना कम। अगर लंबित मामलों के बरक्स देखें तो यह स्थिति और भी शोचनीय नजर आएगी। यही नहीं, जजों के बहुत-से खाली पद समय से नहीं भरे जाते, जिससे अदालतें अपनी वर्तमान क्षमता से भी काम नहीं कर पाती हैं। कानूनमंत्री ने कहा है कि सरकार ने जजों की संख्या में बीस फीसद की बढ़ोतरी की बात सिद्धांत रूप से मान ली है। बीस फीसद वृद्धि जरूरत के हिसाब से बहुत कम होगी, पर अभी यह एक स्वीकृत प्रस्ताव भर है, देखना है इस पर अमल कब हो पाता है। मुकदमों के शीघ्र निपटारे के लिए अदालतों की कार्य-संस्कृति बदलना भी जरूरी है। वकील बिना किसी ठोस कारण के भी तारीख आगे बढ़ाने की अर्जी लगा देते हैं, और वह आसानी से मंजूर भी हो जाती है। वे जब-तब हड़ताल पर भी चले जाते हैं। बेजा स्थगन और अनावश्यक हड़ताल की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने के लिए कुछ नियम-कायदे बनाने होंगे। सुनवाई की दो तारीखों का अधिकतम अंतराल तय करना होगा। बहुत सारे विचाराधीन कैदी अपने खिलाफ लगे अभियोग की संभावित सजा से ज्यादा वक्त जेल में गुजार चुकने के बाद भी फैसले का इंतजार करते रहते हैं। ऐसे मामलों की समीक्षा कर उन्हें काफी तेजी से निपटाया जा सकता है। इससे जेलों को भी राहत मिलेगी, जिन पर उनकी क्षमता से बहुत ज्यादा कैदियों का बोझ है। 
जब भी मुकदमों के निपटारे की समय-सीमा तय करने की बात आती है, यह अंदेशा जताया जाता है कि ऐसा करने से जजों पर वक्त की पाबंदी का बेजा दबाव रहेगा, जिसका नतीजा न्यायिक प्रक्रिया के लिए ठीक नहीं होगा। यह दलील सिरे से खारिज नहीं की जा सकती, पर ऐसा प्रावधान जरूर किया जा सकता है कि निचली अदालत में दो साल और ऊपरी अदालत में साल भर के भीतर फैसला न आए तो संबंधित मामले की त्वरित सुनवाई की व्यवस्था हो। हमें इस पर भी सोचना होगा कि अनावश्यक मुकदमे न पैदा हों। बहुत-से लोगों को इसलिए अदालत की शरण लेनी पड़ती है कि प्रशासन के स्तर पर उनकी सुनवाई नहीं होती। सरकारें खुद बहुत-से गैर-जरूरी मुकदमों का सबब बनती हैं। यों वे आदर्श नियोक्ता कही जाती हैं, पर खासकर अस्थायी या अनुबंध आधार पर नियुक्त किए गए बहुत-से लोगों को अपना बकाया वेतन-भत्ता पाने के लिए अदालत की शरण लेनी पड़ती है। फिर ढेर सारे मुकदमे जमीन के झगड़े से संबंधित होते हैं। भूमि-रिकार्ड दुरुस्त कर इनकी गुंजाइश काफी कम की जा सकती है। जाहिर है, प्रशासन सुधार के बगैर न्यायिक सुधार का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता।