Tuesday 23 September 2014

न्यायपालिका के आदेश




रिहाई की आस

Sat, 06 Sep 2014 

सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश विचाराधीन कैदियों के लिए एक बड़ी राहत लेकर आया है कि जिन्होंने अपनी संभावित सजा का आधा समय जेलों में काट लिया है उन्हें रिहा कर दिया जाए। चूंकि केंद्र सरकार भी इस पर विचार कर रही थी, इसलिए यह उम्मीद की जा सकती है कि शीघ्र ही सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल शुरू होगा और हजारों कैदियों को जेल की सलाखों से मुक्ति मिलेगी। देखना यह है कि अगर इस काम में कोई बाधाएं आती हैं तो उन्हें आसानी से दूर किया जा सकेगा या नहीं? यह सवाल इसलिए, क्योंकि इसमें संदेह है कि राज्य सरकारों के पास ऐसे कोई आंकड़े होंगे कि उनकी जेलों में बंद कितने विचाराधीन कैदी अपनी संभावित सजा का आधा समय काट चुके हैं? चूंकि यह स्पष्ट नहीं कि क्या सुप्रीम कोर्ट का आदेश हत्या और दुष्कर्म के आरोपों का सामना कर रहे कैदियों पर भी लागू होगा या नहीं इसलिए असमंजस की स्थिति पैदा हो सकती है। कुछ कैदी ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें सजा सुनाए जाने का समय तय हो गया होगा। इनके बारे में भी स्पष्टता आवश्यक है। बेहतर हो कि राज्य सरकारें उन विचाराधीन कैदियों की रिहाई के मामले में सक्रियता का परिचय दें जो हत्या और दुष्कर्म सरीखे गंभीर अपराधों के आरोपी नहीं हैं और जिन्होंने अपनी संभावित सजा का आधा या उससे ज्यादा समय जेलों में गुजार दिया है। एक अनुमान के अनुसार देश में करीब चार लाख कैदी हैं, जिनमें से ढाई लाख से अधिक विचाराधीन हैं। यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इनमें से एक बड़ी संख्या उन कैदियों की होगी जो छोटे-मोटे अपराधों में शामिल होने के आरोप में सलाखों के पीछे बंद हैं। यह ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट और साथ ही केंद्र सरकार इस नतीजे पर पहुंचे कि उन विचाराधीन कैदियों को रिहा कर देने में ही भलाई है जो अपनी संभावित सजा का आधा हिस्सा जेलों में गुजार चुके हैं, लेकिन किसी को इस पर विचार करना चाहिए कि इसकी नौबत क्यों आई? न्याय का तकाजा तो यह कहता है कि किसी भी आरोप का सामना कर रहे व्यक्ति का फैसला एक निश्चित समय में किया जाए। यदि समय पर मुकदमों के निस्तारण की कोई व्यवस्था नहीं बनाई जाती तो कुछ समय बाद फिर से विचाराधीन कैदियों का सवाल खड़ा हो सकता है, क्योंकि यह किसी से छिपा नहीं कि देश की करीब-करीब सभी जेलों में क्षमता से कहीं अधिक कैदी रह रहे हैं और उन पर अच्छा-खासा धन भी खर्च हो रहा है। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि विचाराधीन कैदियों के बारे में एक उचित फैसला हुआ, क्योंकि अदालतों में लंबित मुकदमों के बोझ से छुटकारा मिलने की उम्मीद अभी भी नहीं दिखती और विचाराधीन कैदियों के जो लाखों मामले लंबित हैं उनके बारे में कोई बीच का रास्ता अपनाने की स्थिति भी नहीं है। स्पष्ट है कि समय पर न्याय देने की व्यवस्था का निर्माण करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। इस बारे में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के स्तर पर वर्षो से विचार-विमर्श हो रहा है, लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा पा रहा है। बेहतर होगा कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, तीनों मिलकर यह सोचें कि समय पर न्याय कैसे सुलभ हो?
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फैसले के बाद

Thu, 25 Sep 2014

अंतत: सुप्रीम कोर्ट ने कोयला खदानों के वे सभी 214 आवंटन रद कर दिए जिन्हें मनमाने तौर से बांटा गया था। चूंकि इन खदानों के आवंटन में मनमानी एक घोटाले की शक्ल लेकर सामने आ चुकी थी इसलिए इसी तरह के किसी फैसले की उम्मीद की जा रही थी-इसलिए और भी, क्योंकि खुद केंद्र सरकार ने यह कहा था कि ऐसे किसी निर्णय से उसे आपत्ति नहीं होगी। एक साथ इतनी बड़ी संख्या में कोयला खदानों का आवंटन रद होना नीतियों को लागू करने में मनमानी बरतने के दुष्परिणाम का परिचायक है। प्राकृतिक संसाधनों के मामले में इस तरह की मनमानी को स्वीकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से पहले से ही संकट से जूझ रहे ऊर्जा क्षेत्र की समस्याएं बढ़ सकती हैं। कोयले का संकट अर्थव्यवस्था के लिए भी मुश्किलें पेश कर सकता है। चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने उन 42 कंपनियों के भी आवंटन रद कर दिए हैं जिन्होंने किसी न किसी स्तर पर कोयला खनन का काम शुरू कर दिया था या फिर शुरू करने ही वाली थीं इसलिए कोयले का संकट पैदा होने के साथ ही कारपोरेट जगत को भी झटका लगना तय है। 1जिन 42 कोयला खदानों का आवंटन रद किया गया है उनसे कुल उत्पादन का करीब दस फीसद कोयला निकल रहा था। इसे मामूली नहीं कहा जा सकता और शायद इसीलिए यह सवाल उठ रहा है कि क्या यह संभव नहीं था कि जिस तरह चार कोयला खदानों के आवंटन जुर्माने के साथ बख्श दिए गए उसी तरह उन कंपनियों के मामले में भी लचीला रवैया अपनाया जाता जो कोयले का खनन शुरू करने की स्थिति में आ गई थीं? यह सवाल इसलिए, क्योंकि नीति नियंताओं और कोयला कंपनियों की गलती की सजा देश की अर्थव्यवस्था को मिलने जा रही है। यह ठीक है कि कोयला खदानों के आवंटन रद होने के बाद केंद्र सरकार ने एक नई शुरुआत करने की बात कही है, लेकिन इस काम में देरी नहीं होनी चाहिए। भले ही कोयला खदानों से वंचित कंपनियों के कामकाज को कोल इंडिया अपने हाथ में लेने जा रही है, लेकिन सब जानते हैं कि उसके पास इतनी क्षमता नहीं कि वह जरूरत भर कोयले का खनन कर सके। कोयला आवंटन की पूरी नीति बदलने की तैयारी दिखा रही सरकार को ऐसा कोई रास्ता निकालना होगा जिससे अर्थव्यवस्था के प्रभावित होने की आशंकाओं को दूर किया जा सके।
[स्थानीय संपादकीय: दिल्ली]
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निष्पक्षता पर सवाल

Thu, 25 Sep 2014

पारुइ के सागर घोष हत्याकांड में बुधवार को आखिर कलकत्ता उच्च न्यायालय ने सीबीआइ जांच का निर्देश दे दिया। इस घटना की सीबीआइ जांच महज निर्देश मात्र नहीं है। यह बंगाल के पुलिस प्रशासन की निष्पक्षता के लिए भी बड़ा प्रश्नचिन्ह है। हाईकोर्ट के न्यायाधीश हरिश टंडन ने सीबीआइ जांच का फैसला सुनाते हुए जो टिप्पणी की है वह काफी गंभीर है। हाईकोर्ट ने राज्य के पुलिस प्रमुख (डीजीपी) के नेतृत्व में गठित स्पेशल जांच टीम (सीट) पर सवाल खड़ा किया है। यह पुलिस प्रशासन के प्रति लोगों का भरोसा तोड़ने वाला निर्देश है। क्योंकि, न्यायाधीश टंडन ने जिस तरह यह कहा कि हाईकोर्ट के निर्देश पर गठित सीटी ने प्रभावित होकर दोषियों को बचाने की कोशिश की है। वह खुद में सवाल है। हाईकोर्ट के फैसले से साफ हो गया है कि सत्तारूढ़ दल के नेताओं से जुड़े मामले में पुलिस की भूमिका क्या होती है? क्या हाईकोर्ट के इस निर्देश के बाद लोगों का भरोसा पुलिस प्रशासन पर कायम रह सकेगा? इस मामले में पुलिस से लेकर सीआइडी तक की हाईकोर्ट के अंदर और बाहर काफी आलोचना हुई थी। इसके बावजूद सीट की जांच निष्पक्ष न होना बहुत ही गंभीर विषय है। हाईकोर्ट की देखरेख में सीट को जांच का दायित्व सौंपा गया था, लेकिन जिस तरह से सीट ने हाईकोर्ट को बिना बताए निचली अदालत में चार्जशीट पेश की और मुख्य आरोपी का नाम हटा दिया गया, उसके बाद से ही लग रहा था कि हाईकोर्ट मामले की सीबीआइ जांच का निर्देश दे सकता है। क्योंकि, पुलिस की जांच पर सवाल खड़ा होने पर हाईकोर्ट ने सीआइडी जांच का निर्देश दिया था। परंतु, सीआइडी भी निष्पक्ष जांच नहीं कर सकी तो हाईकोर्ट को बाध्य होकर डीजीपी के नेतृत्व में स्पेशल जांच टीम गठित की गई। पर, वह भी हाईकोर्ट की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। जब हाईकोर्ट की निगरानी में सीट जांच कर रही थी तब इस तरह मुख्य आरोपियों को बचाने की कोशिश हुई, ऐसे में आम लोगों से जुड़े मामलों में पुलिस की भूमिका कैसी होती होगी इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। क्या पुलिस व प्रशासन के प्रति जो लोगों का भरोसा व विश्वास रसातल में पहुंचा है यह कभी पुन: कायम हो सकेगी? ऐसा नहीं जान पड़ता। यह सिर्फ पुलिस प्रशासन नहीं मुख्यमंत्री व गृहमंत्री ममता बनर्जी के प्रति भी लोगों का भरोसा भी कम करने वाला मामला है। हाईकोर्ट के निर्देश से यह भी साबित हो रहा है कि राजनीतिक स्वार्थ के लिए पूरे पुलिस विभाग की साख को धूमिल किया गया है। जब मुख्यमंत्री खुद मुख्य आरोपी को सरेआम बेकसूर बता दिया हो तो कौन पुलिस उनसे पूछताछ करने की हिम्मत दिखा सकती है। यह बात हाईकोर्ट में उठी थी। अब भी वक्त है पुलिस को अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए।
[स्थानीय संपादकीय: पश्चिम बंगाल]


सेवानिवृत्ता न्यायाधीश ....राजनीतिक नियुक्ति




सत्यम-सतशिवम-सुंदरम

Tue, 09 Sep 2014

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी सतशिवम ने केरल के राज्यपाल के रूप में शपथ ग्रहण कर ली है, लेकिन यह बहस जारी है कि उन्हें राज्यपाल बनाया जाना चाहिए या नहीं? लगे हाथ एक सवाल यह भी उछाला जा रहा है कि उन्हें राज्यपाल बनना चाहिए था या नहीं? इस बहस में कुछ भी अनुचित नहीं, क्योंकि वह सुप्रीम कोर्ट के पहले ऐसे मुख्य न्यायाधीश हैं जिन्हें राज्यपाल बनाया गया है और इस तरह से एक नया काम हुआ है, लेकिन इस बहस को धार दे रहे लोग जिस तरह यह रेखांकित कर रहे हैं कि मोदी सरकार ने सतशिवम को अमित शाह के जमानत पर बने रहने में सहायक साबित हुए फैसले के एवज में राज्यपाल की कुर्सी नवाजी है वह एक तरह से चरित्र हनन की राजनीति है। आम तौर पर यह दुष्प्रचार वही लोग कर रहे हैं जो इस चिंता में भी दुबले हो रहे हैं कि राज्यपाल पद की गरिमा से खिलवाड़ हो रहा है। सतशिवम को राज्यपाल बनाए जाने को लेन-देन का मामला बताना अपने राजनीतिक फायदे के लिए जानबूझकर कीचड़ उछालना है। यह सही है कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश रहते समय सतशिवम ने एक ऐसा फैसला दिया था जिससे अमित शाह को जमानत पर बने रहने में सफलता मिली, लेकिन ऐसा करते समय उन्होंने इसी तरह के कई फैसलों का हवाला दिया था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि सतशिवम ने अमित शाह को राहत देने का फैसला अकेले नहीं लिया था। यह फैसला जिस दो सदस्यीय पीठ ने दिया था उसके एक अन्य सदस्य बीएस चौहान भी थे। जाहिर है कि सतशिवम के राज्यपाल बनने को किसी किस्म के लेन-देन का मामला बताने वाले लोग तथ्यों को अपने हिसाब से काट-छांटकर पेश कर रहे हैं। इस काट-छांट का मकसद राजनीतिक लाभ हासिल करना भर है।
इस पर गौर किए जाने की जरूरत है कि सतशिवम की पीठ ने सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले में अमित शाह के खिलाफ सीबीआइ की ओर से दर्ज दूसरी एफआइआर को खारिज भर किया था। सीबीआइ ने अमित शाह के खिलाफ दूसरी एफआइआर इस आधार पर दर्ज की थी कि तुलसीराम प्रजापति मुठभेड़ का मामला सोहराबुद्दीन मामले से अलग है। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि ये दोनों मुठभेड़ एक ही साजिश का हिस्सा हैं और इसके लिए अलग-अलग मुकदमा चलाने की जरूरत नहीं है। अमित शाह के वकील का आरोप था कि सीबीआइ एक और चार्जशीट दायर कर उन्हें फिर से जेल भेजना चाहती है। सतशिवम के राज्यपाल बनने से दुखी लोग ऐसी प्रतीति करा रहे हैं मानों उन्होंने न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठकर अमित शाह को सारे आरोपों से बरी कर दिया हो। इस मामले में यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि अमित शाह को जिस समय सुप्रीम कोर्ट से राहत मिली उस समय न तो कोई यह कहने की स्थिति में था कि केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने जा रही है और न ही यह कि इस सरकार के गठन के बाद अमित शाह भाजपा अध्यक्ष बनेंगे। जिस वक्त अमित शाह को जमानत मिली उस दौरान तो 'अबकी बार मोदी सरकार' नारे ने भी आकार नहीं लिया था।
अगर सतशिवम के राज्यपाल बनने के कारण इस सुविधाजनक नतीजे पर पहुंचा जाएगा कि सेवानिवृत्तिके बाद मिलने वाले किसी लाभ की खातिर उन्होंने न्याय से समझौता किया तो फिर यह भी माना जाना चाहिए कि पिछले वषरें में सुप्रीम कोर्ट के जो ढेर भर सेवानिवृत्ता न्यायाधीश विभिन्न आयोगों, न्यायाधिकरणों आदि के प्रमुख बने उन्होंने भी न्याय से समझौता किया। सुप्रीम कोर्ट के करीब एक दर्जन न्यायाधीश ऐसे हैं जिन्होंने पिछले दस वषरें में यानी मनमोहन सरकार के समय में सेवानिवृति के बाद किसी नए पद को ग्रहण किया। इनमें से कुछ तो ऐसे रहे कि इधर रिटायर हुए और उधर नए पद पर पहुंच गए। सतशिवम सेवानिवृत्तिके पांच माह बाद राज्यपाल बने हैं। अगर यह नियम नहीं बना है कि सेवानिवृत्ता होने के कितने समय बाद किसी न्यायाधीश को नया पद ग्रहण करना चाहिए तो उसके लिए सतशिवम को दोष नहीं दिया जा सकता। उन्हें इसलिए भी नहीं लांछित किया जा सकता कि उन्होंने राज्यपाल बनना क्यों स्वीकार किया? यह सतशिवम ही बता सकते हैं कि उन्होंने राज्यपाल बनना क्यों स्वीकार किया, लेकिन जब तक यह पद अस्तित्व में है तब तक उस पर लोग नियुक्त होंगे ही।
सतशिवम के राज्यपाल बनने पर कुछ लोग यह दलील दे रहे हैं कि उन्हें इस आधार पर राज्यपाल पद स्वीकार नहीं करना चाहिए था कि इससे गलत संदेश जाएगा। एक तो गलत संदेश जानबूझकर पैदा किया जा रहा है और दूसरे ऐसी कोई दलील तब क्यों नहीं दी गई जब अन्य सेवानिवृत्ता न्यायाधीश मलाईदार पदों पर सुशोभित किए गए? नैतिकता की लक्ष्मण रेखा केवल सतशिवम के आगे ही खींचने का कोई मतलब नहीं। यह न्यायसंगत नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज के लिए अलग मानदंड बनाए जाएं और शेष के लिए अलग। ऐसा लगता है कि सतशिवम के आलोचक यह मानकर चल रहे हैं कि मोदी सरकार जो कुछ कर रही है वह गलत ही है। कोई भी सरकार हो उसके फैसलों की आलोचना गुण-दोष के हिसाब से होनी चाहिए, न कि इस नजरिये से कि हम विपक्ष में हैं तो सरकार के हर फैसले की सिर्फ और सिर्फ आलोचना ही करेंगे। यह हास्यास्पद है कि सतशिवम को राज्यपाल बनाने को तो राजनीतिक नियुक्ति बताया जा रहा है, लेकिन अन्य राज्यपालों के मामले में यह कहा जा रहा है कि संवैधानिक पद का निरादर किया जा रहा है। मोदी सरकार बनने के बाद से नौ वे राज्यपाल इस्तीफा दे चुके हैं जिन्हें पिछली सरकार के समय नियुक्त किया गया था। इनमें से कई ने तब इस्तीफा दिया जब उन्हें मिजोरम का डर दिखाया गया। कहते हैं कुछ को गृह मंत्रालय के एक अफसर ने फोन करके इस्तीफा देने को कहा। अगर यह सही है तो कुछ वैसा ही है जैसे कोई मैनेजर किसी कर्मी से कहे कि कल से काम पर मत आना। क्या यह उम्मीद की जाए कि जो नए राज्यपाल बने हैं वे हाल में भूतपूर्व हुए राज्यपालों की गति को प्राप्त होने से बचेंगे?
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]

सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी




सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी

Thu, 04 Sep 2014 

गंगा की सफाई के लिए सरकार की तैयारी पर सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी के पर्याप्त आधार हो सकते हैं, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि केंद्र सरकार की ओर से पहले ही यह स्पष्ट किया जा चुका है कि इस नदी को साफ करने के लिए एक ठोस योजना पर काम हो रहा है और उस पर विभिन्न मंत्रालय मिलकर काम कर रहे हैं। केंद्र सरकार की ओर से कई अवसरों पर गंगा को साफ-स्वच्छ करने की प्रतिबद्धता भी जताई जा चुकी है और उसे देखते हुए ही कई देश उसकी सहायता करने के लिए आगे आए हैं। केंद्र सरकार ने गंगा के लिए एक अलग मंत्रालय बनाने के साथ ही जिस तरह नमामि गंगे योजना के लिए अच्छी-खासी धनराशि आवंटित की है उसे देखते हुए ऐसे किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता कि वह इस मामले में सुस्ती का परिचय दे रही है। यह सही है कि केंद्र सरकार को शासन की बागडोर संभाले सौ दिन हो चुके हैं, लेकिन गंगा की सफाई के लिए आनन-फानन काम शुरू कर देने से बेहतर है कोई ठोस योजना बनाकर आगे बढ़ना। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि पिछले तीस सालों में गंगा को साफ करने के लिए जो अभियान शुरू हुए वे नाकाम ही साबित हुए। इन अभियानों की नाकामी से खुद सुप्रीम कोर्ट को परिचित होना चाहिए। अगर ये अभियान सही होते तो फिर गंगा की सफाई के नाम पर अरबों रुपये बर्बाद नहीं हुए होते। सुप्रीम कोर्ट को इस तथ्य से भी अवगत होना चाहिए कि गंगा को साफ-सुथरा बनाने के लिए किस तरह बार-बार उन्हीं तौर तरीकों पर अमल किया गया जो निष्प्रभावी साबित हो चुके थे। इन स्थितियों में पहली आवश्यकता इसी बात की है कि ऐसी कोई योजना बने जो गंगा को वास्तव में साफ-स्वच्छ करने में सहायक साबित हो। यदि केंद्र सरकार ठोस योजना बनाने में हीलाहवाली करती दिख रही हो तो फिर सुप्रीम कोर्ट को सख्ती दिखानी ही चाहिए।
गंगा की सफाई के लिए कारगर योजना तैयार होना इसलिए सबसे अधिक जरूरी है, क्योंकि ऐसा होने पर ही देश की अन्य नदियों के भी गंदगी से मुक्त होने की उम्मीद की जा सकती है। अभी तो जिन भी नदियों की साफ-सफाई का काम हो रहा है वह आधे-अधूरे ढंग से ही हो रहा है। परिणाम यह है कि धन की बर्बादी के साथ ही देश की करीब-करीब सभी नदियों में प्रदूषण बढ़ रहा है। चिंताजनक यह है कि राज्य सरकारें नदियों की साफ-सफाई में तनिक भी रुचि लेती नहीं दिखाई दे रही हैं। यह तब है जब वे यह जान रही हैं कि कौन सी नदी किन कारणों से प्रदूषित हो रही है? राज्य सरकारों की प्रदूषण नियंत्रण वाली एजेंसियां उन कल-कारखानों पर भी अंकुश लगा पाने में नाकाम हैं जो नदियों में कचरा उड़ेल रहे हैं। राज्य सरकारें यह भी नहीं सुनिश्चित कर पा रही हैं कि सीवेज शोधन संयंत्र सही तरह से चलें। बेहतर होगा कि गंगा की सफाई के मामले में केंद्र सरकार को कारगर योजना बनाने के लिए पर्याप्त समय दिया जाए। वह जो योजना बना रही है उसमें इसका पूरा ध्यान रखा जाना आवश्यक है कि अभी तक जो उपाय अपनाए गए वे नाकाम क्यों रहे?
[मुख्य संपादकीय]

राष्ट्रीय न्यायिक आयोग




राष्ट्रीय न्यायिक आयोग

Sun, 17 Aug 2014

संयोजन और सदस्य
आयोग में कुल छह सदस्य होंगे। भारत के मुख्य न्यायाधीश इसके अध्यक्ष होंगे। सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ जज सदस्य होंगे। कानून मंत्री पदेन सदस्य होंगे। दो प्रबुद्ध नागरिक सदस्य होंगे, जिनका चयन प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में नेता विपक्ष वाली तीन सदस्यीय समिति करेगी। अगर लोकसभा में नेता विपक्ष नहीं होगा तो सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता चयन समिति में होगा। दो प्रबुद्ध व्यक्तियों में से एक सदस्य एससी-एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यक या महिला वर्ग से होगा।
आयोग का काम
* राष्ट्रीय न्यायिक आयोग भारत के मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीश और हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश व अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति की सिफारिश करेगा।
* हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के स्थानांतरण की सिफारिश करेगा।
* यह सुनिश्चित करेगा कि जिसकी सिफारिश की गई है वह व्यक्ति योग्य और निष्ठावान हो।
कोलेजियम व्यवस्था
न्यायपालिका के शीर्ष पदों यानी सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति व स्थानांतरण का निर्धारण करने वाला एक फोरम है। यह प्रक्रिया 1993 से लागू है।
सुप्रीम कोर्ट के लिए
मुख्य न्यायाधीश सहित चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों से बना कोलेजियम किसी जज की नियुक्ति की अनुशंसा करता है। यह सिफारिश विचार और स्वीकृति के लिए प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को भेजी जाती है। नियुक्त प्रक्रिया में लगने वाला औसत समय 1 माह।
हाई कोर्ट के लिए
संबंधित हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश कोलेजियम से सलाह मशविरे के बाद प्रस्ताव राज्य सरकार को भेजते हैं। फिर देश के मुख्य न्यायाधीश के पास यह प्रस्ताव आता है। बाद में इसे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के पास विचार और स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। नियुक्ति में लगने वाला औसत समय 6 माह।
जजों का चयन
* मुख्य न्यायाधीश पद के लिए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम न्यायाधीश के नाम की सिफारिश करेगा।
* तय नियमों और प्रावधानों के मुताबिक वरिष्ठता व अन्य योग्यताओं और पद के लिए उपयुक्तता को ध्यान में रखते हुए उपलब्ध योग्य न्यायाधीशों में से सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के लिए सिफारिश करेगा।
* आयोग वरिष्ठता क्रम को ध्यान में रखते हुए हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पद पर नियुक्ति की सिफारिश करेगा। इसमें मेरिट व अन्य मानदंडों का भी ध्यान रखेगा।
* राष्ट्रपति चाहें तो नियुक्ति की सिफारिश पुनर्विचार के लिए आयोग को वापस भेज सकते हैं, लेकिन अगर आयोग ने पुनर्विचार के बाद एकराय से अपनी सिफारिश पर फिर मुहर लगा दी तो राष्ट्रपति उस सिफारिश के आधार पर नियुक्ति करेंगे।
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जरूरी है न्यायिक आयोग
Thu, 04 Sep 2014 

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के लिए संसद द्वारा बनाया हुआ बिल एक सराहनीय कार्य है। अब जजों की नियुक्ति जनता की इच्छा से होगी। जनतंत्र में जनता सर्वोच्च है और यदि ऐसा नहीं है तो कहीं न कहीं असंतुलन जरूर है। सरकार के तीनों अंग- न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका जनता की इच्छानुसार चलते हैं। संसद जनता की इच्छाओं का प्रतिफल है अत: इसके कृत्य जनता के ही हैं। संविधान की धारा 124 में साफ लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट के जज की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। राष्ट्रपति हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की सलाह ले सकते हैं। 1982 में सुप्रीम कोर्ट ने फ‌र्स्ट जज मामले में यह निर्णय दिया था कि राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश के सलाह से करेंगे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह इसके लिए बाध्य होंगे। 1993 में सेकंड जज मामले में सलाह शब्द की व्याख्या पहले से भिन्न कर दी गई और कहा गया कि मुख्य न्यायाधीश द्वारा दी गई सलाह राष्ट्रपति को माननी पड़ेगी। थर्ड जज मामले में 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने कोलेजियम की व्यवस्था की जिससे जजों की नियुक्ति का नया प्रावधान बना। इस तरह हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट कार्यपालिका व विधायिका से स्वतंत्र हो गई। किसी भी लोकतांत्रिक देश में ऐसी व्यवस्था नहीं है।
प्रश्न उठता है कि जब न्यायपालिका इतनी स्वतंत्र हो गई तो क्यों लगभग तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं? क्या एक साधारण व्यक्ति नामी वकील को अपना मुकदमा लड़ने की फीस दे सकता है? क्या यह सच नहीं है कि राजीव गांधी की हत्या जैसे मामले में भी अंतिम सजा सुनाने में लगभग 20 साल लग गए। जब ऐसे मामलों में निर्णय आने में इतना समय लग रहा है तो आम आदमी के साथ क्या हो रहा होगा? जब न्यायपालिका स्वतंत्र है और किसी तरीके का हस्तक्षेप नहीं है तब निर्णय देने में इतना समय क्यों लगता है? जब न्यायपालिका अपने निर्णय से कार्यपालिका एवं विधायिका की शक्ति छीन सकती है तो अपने आप में सुधार करने में मुश्किल क्यों? अब तो परियोजना लगाने और प्रशासनिक कार्य में भी न्यायपालिका का हस्तक्षेप हो गया है। ट्रांसफर, काला धन आदि मामलों में भी न्यायपालिका का दखल है। न्यायपालिका का दायित्व है कि वह कानून की व्याख्या करते हुए उसे लागू कराने का कार्य करे न कि बनाने का। आज सबसे ज्यादा कमजोरी छुपी है तो न्यायपालिका में। अवमानना के डर से अंदर की सच्चाई बाहर नहीं आ पाती तो लोग सोचते हैं कि वहां सब कुछ ठीक है। चूंकि सरकार के दूसरे अंग जैसे कार्यपालिका और विधायिका के बारे में गोपनीयता नहीं बरती जाती और न ही आलोचना करने में कोई डर है, इसलिए वहां गंदगी ज्यादा दिखती है। जिस दिन अमेरिका जैसी व्यवस्था भारत में होगी उस दिन भारत की भी न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका की तरह दिखने लगेगी। वहां पर तो जज की नियुक्ति के पहले ही उनका नाम सार्वजनिक चर्चा में ला दिया जाता है और लोग खुलकर अपनी राय देते हैं। इस तरह तैनाती से पहले उन्हें अग्निपरीक्षा से गुजरना होता है।
आश्चर्य होता है कि हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट में बड़े वकीलों को प्रति पैरवी लाखों रुपये देने पड़ते हैं तो भी जनता में इसकी आस्था बनी हुई है। लेकिन ऐसा कब तक चलेगा? न्यायपालिका में आस्था का दूसरा कारण यह है कि कार्यपालिका और विधायिका में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। अक्सर न्यायपालिका का भी असली चेहरा सामने आ जाता है जैसे वरिष्ठ अधिवक्ता शांति भूषण द्वारा लगाए गए आठ मुख्य न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप। यौन उत्पीड़न के मामले में भी कुछ जजों पर आरोप लगे। इनके पास अवमानना का अधिकार न होता तो अब तक कार्यपालिका और विधायिका जैसी बदनामी इनकी भी हो गई होती। वर्तमान सरकार को धन्यवाद देना चाहिए कि उसने न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाने का बिल पास करा लिया। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू का योगदान भी भुलाया नहीं जा सकता है। उनकी बेबाकी से इस बिल को पास करने में संसद को बल मिला। फली एस. नरीमन जैसे वरिष्ठ अधिवक्ता इस बिल के पास होने के विरोध में हैं। चूंकि ये लोग कुलीन घराने से आते हैं इसलिए चाहते हैं कि जनता नहीं, बल्कि इन चंद लोगों का आधिपत्य बना रहे। हर मामले में अमेरिका और विकसित देशों का उदाहरण देते हुए थकते नहीं, लेकिन जजों की नियुक्ति के मामले में दोहरा चरित्र क्यों? अमेरिका में सीनेट कमेटी जजों की नियुक्ति करती है। इंग्लैंड में सेलेक्शन के माध्यम से और जर्मनी में संसद के दोनों सदनों द्वारा। 121वें संवैधानिक संशोधन की वजह से संविधान की धारा 124, 217 में परिवर्तन किए गए हैं ताकि आयोग का गठन हो सके। कुलीन लोगों का कहना है कि इससे नौ जजों की पीठ केशवानंद भारती के फैसले का उल्लंघन होगा। प्रश्न है कि क्या संविधान सभा और संसद के ऊपर हैं केशवानंद भारती? गलत बयानबाजी की जा रही है कि इससे न्यायिक प्रक्रिया की स्वतंत्रता पर असर पड़ेगा। हमें समझना चाहिए कि जनता की इच्छा सर्वोपरि होती है।
अब नई बहस छिड़ गई है कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश होने की योग्यता वरिष्ठता होगी या कोई और आधार। संविधान में कहीं ऐसा नहीं है कि वरिष्ठ जज ही मुख्य न्यायाधीश हो सकता है। अमेरिका में भी ऐसा नहीं है। वहां ऐसे जज भी मुख्य न्यायाधीश बने जो सुप्रीम कोर्ट के जज भी नहीं थे। क्या यह कोई बता सकता है कि जज की नियुक्ति की योग्यता क्या है? कौन सी ऐसी एजेंसी है जो इनके मेरिट को तय कर सकती है? एक अन्य समाधान यह है कि अखिल भारतीय ज्यूडिशियल सर्विसेज लागू हो ताकि अच्छी प्रतिभाएं वहां जाएं। वर्तमान परिस्थिति में न्यायिक आयोग की बहुत आवश्यकता है और यह सुनकर आश्चर्य होता है कि लोग इसे न्यायपालिका में चुनौती देने जा रहे हैं। तो ऐसे में देश को कौन चलाएगा? जनता की इच्छा या न्यायपालिका। दुनिया में कहीं भी जजों की नियुक्ति जज नहीं करते। केवल भारत में ऐसा होता है इसलिए इसे समाप्त कर देना ही उचित है।
[लेखक डॉ. उदित राज, लोकसभा के सदस्य हैं]

न्यायिक सुधारों की रफ्तार




न्याय न बने अन्याय
Sun, 17 Aug 2014 
संस्था
न्यायपालिका। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे मजबूत अंग। जब-जब जनहित से जुड़े मुद्दों पर लोकतंत्र के अन्य अंगों कार्यपालिका या विधायिका द्वारा कुठाराघात किया गया तो न्यायपालिका ने ही एक कदम आगे बढ़कर उन मसलों को न केवल अंजाम तक पहुंचाया बल्कि अपने और लोकतंत्र के प्रति जनमानस के भरोसे को और मजबूत भी किया। अपने इसी जज्बे और छवि के चलते लोकतंत्र के अन्य स्तंभों की तुलना में भारतीय न्यायपालिका पर सभी नागरिकों की श्रद्धा और विश्वास औरों से कहीं ज्यादा है। सुधार माना जाता है कि किसी लोकतांत्रिक देश और समाज का चहुंमुखी विकास तभी संभव हो पाता है जब सभी क्षेत्र समानुपातिक रूप से सुधरें। आज से करीब चौथाई सदी पहले हम आर्थिक सुधारों का सूत्रपात कर चुके हैं। राजनीतिक सुधारों पर बहस बीच-बीच में न केवल चलती रही है बल्कि कई अहम कदम भी उठाए जा चुके हैं। आजादी के बाद न्यायिक सुधारों की रफ्तार सुस्त रही है। तमाम समितियों, लॉ कमीशन जैसी संस्थाओं की रिपोर्टे इस बाबत आई और अपनी सिफारिशों का पुलिंदा छोड़कर चली गई। न्यायिक क्षेत्र में सुधार की अगुआई को कोई भी सामने नहीं आया। बड़े दिनों बाद न्यायपालिका के बियावान में सुधार की रोशनी दिखी है। शीर्ष न्यायिक पदों की नियुक्तियों में विसंगतियों को दूर करने के लिए कोलेजियम प्रणाली को खत्म करके न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया जा रहा है। न्यायिक क्षेत्र में इस सुधार को मील का पत्थर और क्रांतिकारी कदम सरीखा माना जा रहा है। इसके अलावा अनुपयोगी और अप्रासंगिक कानूनों को खत्म करने की पहल भी इस क्षेत्र में सुधार की एक बानगी की तरह देखी जा रही है।
समाधान
आम जन को सस्ता, सुलभ और त्वरित न्याय न्यायपालिका की जिम्मेदारी है। जनता के अधिकारों की रक्षा करना उसकी जवाबदेही है। विलंबित न्याय, न्याय न मिलने जैसा होता है। सुधारों की सुस्त रफ्तार या यूं कहें कि सुधारों के अभाव में आजादी के छह दशक बाद भी कुछेक लोगों का पूरा जीवन मुकदमेबाजी में बीत जाता है। फिर भी न्याय मयस्सर होने की गारंटी नहीं होती। ऐसे में जन साधारण को न्याय दिलाने की दिशा में तमाम लंबित न्यायिक सुधारों का त्वरित गति से लागू किया जाना हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
अदालतों में जजों की कमी
स्वीकृत क्षमता -- मौजूदा क्षमता -- रिक्तियांसुप्रीम कोर्ट -- 31 -- 29 -- 02
हाई कोर्ट -- 906 -- 640 -- 266
जिला और अधीनस्थ अदालतें -- 19238 -- 14942 -- 4296
मुकदमों का बोझ कोर्ट -- लंबित मामले
सुप्रीम कोर्ट -- 66,349
हाई कोर्ट (सभी 21) -- 45,89,920
[दिसंबर 2013 तक]
जनमत
क्या कोलेजियम के बदले नई व्यवस्था न्यायिक नियुक्ति आयोग न्यायिक सुधार की दिशा में एक बेहतर कदम है?
हां 81 फीसद
नहीं 19 फीसद
क्या देश में न्यायिक सुधार की रफ्तार लोगों को सस्ता, सुलभ न्याय दिलाने के अनुरूप रही है?
हां 40 फीसद
नहीं 60 फीसद
आपकी आवाज
यह कदम कुछ हद तक सही है और कुछ हद तक गलत। आयोग उनकी कार्यशैली, योग्यता आदि जांच सकता है लेकिन नियुक्ति मामला अगर न्यायाधीश को ही सौंप दें तो श्रेष्ठ होगा। - अनिल कुमार सिंह
कोलेजियम व्यवस्था पहले के लिए थी जिसमें भ्रष्टाचार का कीड़ा लग चुका है। इसलिए नई व्यवस्था लाने की जरूरत है। यह निश्चित रूप से प्रभावी होगी। 
-शुभम गुप्ता100@जीमेल.कॉम
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दुरुस्त आयद

जनसत्ता 15 सितंबर, 2014: प्रचलन से बाहर हो चुके कानूनों को रद््द करने की पहल देर से सही, एक दुरुस्त कदम है। ऐसे बहुत सारे कानून हमारी कानूनी किताबों में कायम हैं जो अंगरेजी हुकूमत के दौरान बने थे और जिन्हें बहुत पहले रद््द घोषित कर दिया जाना चाहिए था। यों इनमें से ज्यादातर व्यवहार में लागू नहीं हैं, पर उनका बने रहना कानूनी ढांचे पर बेकार का बोझ है। ये कानून कितने अप्रासंगिक हैं इसका अंदाजा कुछ उदाहरणों से लगाया जा सकता है। मसलन, 1878 में बने एक कानून के मुताबिक अगर सड़क पर पड़ा नोट देख कर सरकार को इसकी खबर नहीं दी तो जेल की सजा काटनी पड़ सकती है। वर्ष 1934 का एक कानून कहता है कि पतंग बनाने, बेचने और उड़ाने के लिए परमिट जरूरी है। सराय अधिनियम, 1887 के मुताबिक लोग किसी भी होटल में पीने के पानी और शौचालय की सुविधा निशुल्क पा सकते हैं। यह सूची बहुत लंबी है जिसमें दो सौ साल पुराने कानून तक शामिल हैं। यों भारत के गणतंत्र घोषित होने के बाद देश का राज-काज हमारे संविधान के अनुसार चलता रहा है, जिसे संविधान सभा ने मंजूरी दी थी। पर औपनिवेशिक जमाने के निशान ये कानून विधिशास्त्र का हिस्सा बने रहें, इसका कोई औचित्य नहीं हो सकता। वाजपेयी सरकार ने 1998 में प्रशासनिक कानूनों की समीक्षा के लिए समिति गठित कर इन्हें खत्म करने की दिशा में कदम उठाया था। उस समिति की सिफारिश पर अप्रचलित चार सौ पंद्रह कानून रद्द घोषित किए गए, पर उससे ज्यादा तादाद में वैसे कानून अब भी रद्द नहीं हो पाए हैं। लिहाजा, मोदी सरकार ने सभी मंत्रालयों से बेकार पड़ चुके कानूनों को चिह्नित करने को कहा है, साथ ही ऐसे कानूनों की समीक्षा के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय में सचिव आर रामानुजन की अध्यक्षता में एक समिति भी गठित की है। सरकार ऐसे कुछ कानूनों को समाप्त करने के लिए पहले ही एक विधेयक लोकसभा में पेश कर चुकी है, जो फिलहाल लंबित है। पर लगता है इस बारे में कई बार संसद की मंजूरी लेने की जरूरत पड़ सकती है, क्योंकि विधि आयोग भी ऐसे कानूनों का विस्तृत अध्ययन कर रहा है। आयोग ने अप्रचलित बहत्तर कानूनों को समाप्त करने की सिफारिश की है। पर यह उसकी अंतरिम रिपोर्ट है। आयोग ने कहा है कि वह किस्तों में यह आकलन पूरा करेगा और चरणबद्ध तरीके से जरूरी कार्रवाई के लिए सरकार को अपनी रिपोर्टें सौंपेगा। अपने अध्ययन के दौरान आयोग ने यह भी पाया कि पिछले कई वर्षों के दौरान काफी संख्या में पारित विनियोग कानून अपना अर्थ खो चुके हैं, पर कानूनी पुस्तकों का अंग बने हुए हैं। कानून-प्रणाली को अवांछित भार से मुक्ति दिलाने का यह उद्यम सराहनीय है। पर इसी के साथ अदालती कामकाज को भी औपनिवेशिक ढर्रें से मुक्त और सरल बनाने की पहल होनी चाहिए। आज भी अदालती दस्तावेज ऐसी भाषा में तैयार किए जाते हैं, जो मुवक्किलों की समझ से परे होते हैं। उच्च न्यायालयों के फैसले अमूमन अंगरेजी में होते हैं, कई राज्यों में तो वहां वकील प्रांतीय भाषा में अपना पक्ष भी नहीं रख पाते। इसके खिलाफ कुछ साल पहले मद्रास हाइकोर्ट के मदुरै खंडपीठ के वकीलों ने कई दिन तक धरना दिया था। औपनिवेशिक नजरिए का एक उदाहरण हाल में तब सामने आया जब चेन्नई में एक जज को धोती धारण किए होने के कारण एक समारोह में शामिल होने से रोक दिया गया। इसकी चौतरफा हुई आलोचना का असर यह हुआ कि तमिलनाडु सरकार ने एक विधेयक लाकर कुछ खास जगहों पर परिधान संबंधी इस चलन पर रोक लगा दी। मगर प्रशासन, पढ़ाई और अदालती कामकाज में अंगरेजी का जो वर्चस्व है, उससे मुक्ति दिलाने की बीड़ा कौन उठाएगा!
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कानून का जंगल

Wed, 24 Sep 2014

मंगल अभियान का साक्षी बनने के लिए बेंगलूर पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए साफ-सफाई के बारे में जो बातें कीं वे इसलिए जरूरी हैं, क्योंकि इसकी आवश्यकता हर क्षेत्र में महसूस की जा रही है। प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक स्थलों पर व्याप्त गंदगी को दूर करने के साथ-साथ कानून के जंगल को भी साफ करने के प्रति भी प्रतिबद्धता जताई। इस प्रतिबद्धता का प्रदर्शन इसलिए होना चाहिए, क्योंकि हमारे देश में जरूरत से ज्यादा कानून बने हुए हैं। हमारे पास हर समस्या के समाधान के लिए कोई न कोई कानून है और फिर भी समस्याएं कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। इसका एक बड़ा कारण कानूनों की जटिलता और उन पर सही ढंग से अमल न होना है। प्रधानमंत्री ने यह सही कहा कि आजादी के बाद से इतने ज्यादा कानून बना दिए गए हैं कि कानून का जंगल बन गया है। यह संतोषजनक है कि ऐसे तमाम कानून चिह्नित कर लिए गए हैं जिनकी कहीं कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है। यह भी ठीक है कि प्रधानमंत्री ऐसे कानूनों को खत्म करने में विशेष दिलचस्पी ले रहे हैं, लेकिन यह समझना कठिन है कि जो काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था वह ठंडे बस्ते में क्यों पड़ा रहा? अप्रासंगिक हो चुके कानूनों की पहचान अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में ही कर ली गई थी, लेकिन कोई नहीं जानता कि उनसे मुक्ति पाने का काम क्यों नहीं किया गया?
यह उम्मीद की जाती है कि देश को सभी अप्रासंगिक कानूनों से छुटकारा मिलेगा, लेकिन बात तब बनेगी जब प्रासंगिक माने जाने वाले कानून प्रभावी बनेंगे। फिलहाल ऐसी स्थिति नहीं है और इसके चलते समस्याओं के समाधान में बाधाएं सामने आती रहती हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं कि कानूनों की अधिकता और उनकी जटिलता के चलते जो काम आसानी से हो जाने चाहिए वे लंबे समय तक अटके रहते हैं। कई बार तो यह भी देखने में आया है कि कानूनों की जटिलता कई अच्छे कामों में भी बाधक बन जाती है। विडंबना यह रही कि हमारे शासकों ने यह मान लिया कि हर तरह की समस्याओं का समाधान नित नए कानून बनाकर किया जा सकता है। इस मानसिकता के चलते कानूनों का जंगल उगा और अब वह एक समस्या बन गया है। कानून के जंगल को साफ करने की आवश्यकता जताते हुए प्रधानमंत्री ने यह भी चुटकी ली कि आम जनता ने देश में फैली राजनीतिक गंदगी को पहले ही साफ कर दिया है, लेकिन सच्चाई यह है कि राजनीति के क्षेत्र में सफाई और सुधार होना शेष है। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री जैसी रुचि सार्वजनिक स्थलों में व्याप्त गंदगी को दूर करने अथवा कानून के जंगल को साफ करने में ले रहे हैं वैसी ही राजनीतिक क्षेत्र में आवश्यक हो चुके सुधारों की दिशा में आगे बढ़ने में भी लेंगे। जब इन सुधारों की दिशा में आगे बढ़ा जाएगा तब सही मायने में राजनीतिक गंदगी दूर होने का मार्ग प्रशस्त होगा।
[मुख्य संपादकीय]


Thursday 4 September 2014

इच्छा मृत्यु के सवाल को लेकर


कसौटी पर न्याय और नैतिकता

Sunday,Jul 27,2014

इच्छा मृत्यु के सवाल को लेकर देश में बहस एक बार फिर तेज हो गई है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने इच्छा मृत्यु को कानूनी मान्यता दिए जाने संबंधी एक याचिका पर केंद्र सरकार व सभी राज्यों को नोटिस भेजकर उनकी राय मांगी है। सुप्रीम कोर्ट ने ही देश में इच्छा मृत्यु को कानूनी दर्जा देने या न देने का यह मामला पांच जजों की संविधान पीठ को सौंपा था। 2008 में कॉमन कॉज एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी। इसमें तर्क दिया गया कि यदि कोई व्यक्ति मरणासन्न अवस्था में हो और उसके ठीक होने की कोई उम्मीद न हो तो उसे जीवन रक्षक प्रणाली की मदद लेने से इन्कार करने का अधिकार होना चाहिए। केंद्र सरकार ने इसे आत्महत्या करार देते हुए साफ किया कि देश में इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती, क्योंकि यह कानून और चिकित्सा आचार नीतियों के खिलाफ होगा। जाहिर है कि संविधान पीठ केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के जवाब और देश में चल रही बहस से निकलने वाले तथ्यों के आधार पर ही कोई निर्णय लेगी। इसी के आधार पर अदालत भी अपने पूर्व के आदेश पर पुनर्विचार करेगी, जिसने दवाओं के जरिये जान लेने यानी एक्टिव यूथनेशिया का आग्रह खारिज कर दिया था। भारत में इच्छा मृत्यु तथा दया मृत्यु दोनों ही अवैधानिक है। देश की शीर्ष अदालत में पहले भी दलीलें दी जा चुकी हैं कि व्यक्ति को जीने का अधिकार है तो उसे मरने का अधिकार भी होना चाहिए। इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट के दो निर्णय हमारे सामने हैं और इनसे भी इच्छा मृत्यु से जुड़ी तस्वीर साफ नहीं होती। पहला मामला दो दशक पुराना है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि अनुच्छेद-21 में गरिमा के साथ जीने का अधिकार शामिल है। कई लोगों का तर्क है कि अगर इसमें जीने का अधिकार शामिल है तो इसमें गरिमा के साथ मरने का अधिकार भी शामिल होना चाहिए। वर्ष 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने ज्ञान कौर बनाम पंजाब सरकार के मामले में स्पष्ट किया कि अनुच्छेद-21 में जीवन जीने के अधिकार में मृत्युवरण का अधिकार शामिल नहीं है। अगर ऐसा किया जाता है तो यह भारतीय दंड संहिता की धारा 306 और 309 में आत्महत्या का अपराध माना जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि इच्छा मृत्यु को विधिसम्मत बनाने का फैसला विधायिका को करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का दूसरा फैसला 7 मार्च, 2011 में अरुणा रामचंद्र शानबाग के मामले में आया था। दरअसल अरुणा शानबाग मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में नर्स थी। 27 नवंबर, 1973 को एक स्वीपर ने उसका यौन उत्पीड़न किया था। उस घटना के बाद वह कोमा में चली गई। 17 दिसंबर, 2010 को अरुणा शानबाग की लेखिका मित्र पिंकी विरानी ने उसे इस असहाय जीवन से मुक्त कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक अर्जी दी। 7 मार्च, 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने तब निष्क्रिय इच्छा मृत्यु यानी पैसिव यूथनेशिया के पक्ष में फैसला सुनाया। इससे साफ हो गया था कि यदि शानबाग के कानूनी रक्षक चाहें तो उसके लाइफ सपोर्ट सिस्टम को हटाया जा सकता है। किसी व्यक्ति की गंभीर बीमारी और उससे जुड़ी तकलीफ के आधार पर इच्छा मृत्यु को सक्रिय और निष्क्रिय दो आधार पर देखा जाता है। सक्रिय इच्छा मृत्यु का अर्थ है पीड़ा रहित मृत्यु के लिए प्राणघातक इंजेक्शन का प्रयोग किया जाए। दूसरी ओर जिन दवाओं और उपकरणों के सहारे मरीज जिंदा है उन्हें हटा लेना निष्क्रिय इच्छा मृत्यु है। सुप्रीम कोर्ट के इन दोनों ही फैसलों का आशय तो समान था, परंतु उसमें इच्छा मृत्यु से जुड़ी कोई राय स्पष्ट न होने से उसमें कानूनी अस्पष्टता और उलझन अभी भी बनी हुई है। इच्छा मृत्यु पर केवल भारत में बहस नहीं जारी है। विश्व के कई हिस्सों में इच्छा मृत्यु को कानूनी वैधता है। स्विट्जरलैंड में 1937 में सबसे पहले असिस्टेड सुसाइड की मंजूरी मिली थी। फ्रांस और कनाडा के कानून में लाइलाज बीमारी से ग्रसित रोगी की जीवन रक्षक प्रणाली मरीज के अनुरोध पर हटाने का प्रावधान है, लेकिन अगर चिकित्सक स्वार्थवश ऐसा करता है तो यह अपराध की श्रेणी में होगा। बेल्जियम में इच्छा मृत्यु को 2002 में कानूनी मान्यता मिली। वहां दिसंबर, 2013 में असाध्य बीमारियों से जूझ रहे बच्चों के लिए भी इच्छा मृत्यु को वैध बना दिया गया। दूसरी ओर जापान, मैक्सिको तथा लक्जमबर्ग जैसे देशों में सक्त्रिय इच्छा मृत्यु को विधि सम्मत माना गया है। यहां इससे जुड़े कानून बेहद कडे़ हैं। यहां पहले बीमारियों की सूची तैयार की जाती है और एक खास आयोग यह तय करता है कि मरीज को इच्छा मृत्यु दी जा सकती है या नहीं। आयरलैंड, इजरायल, फिलीपींस, नार्वे तथा इंग्लैंड जैसे देशों में इच्छा मृत्यु से जुड़े कानून भारत जैसे ही हैं। चिकित्सा का नीतिशास्त्र कहता है कि जब तक संभव हो डॉक्टर को मरीज को बचाना चाहिए। इच्छा मृत्यु के पक्षकार मानते हैं कि कुछ रोग और अवसाद की स्थिति में ही पीड़ित को सम्मानजनक मौत मिलनी चाहिए। 19वीं और 20वीं सदी में भी भारत में असहाय व गंभीर बीमारियों में अघोषित इच्छा मृत्यु की अनुमति रही है। भारत जैसे बहुधार्मिक देश में संसद और न्यायालयों के सामने भी धार्मिक व नैतिक आस्थाओं से जुड़ी दुश्वारियां कम नही हैं। इच्छा मृत्यु को कानूनी जामा पहनाने के मसले पर संविधान पीठ के सामने भी जरूर ये दुविधाएं बनी रहेंगी। हालांकि भारतीय विधि आयोग पहले ही इस मामले पर संसद को अपनी सहमति दे चुका है। भारत जैसे उदार देश में कानूनों की आड़ में इसके दुरुपयोग की भी पूरी-पूरी संभावनाएं हैं। किडनी प्रत्यारोपण से जुड़े मानव अंगों की तस्करी का मामला अभी भी हमारे जेहन में है। निश्चित ही देश अब संविधान पीठ की ओर टकटकी लगाए है कि इच्छा मृत्यु के तमाम नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व वैज्ञानिक पहलुओं को ध्यान में रखकर ही यह पीठ जीवन का अंत करने की एक न्यायोचित परिभाषा को गढ़कर समाज व देश को इस उलझन से मुक्त करेगी।
[लेखक डॉ. विशेष गुप्ता, समाज शास्त्र के प्राध्यापक हैं]

दागियों को मंत्री बनाने


स्वच्छ दिखे सरकार

नवभारत टाइम्स | Aug 29, 2014

सुप्रीम कोर्ट ने दागियों को मंत्री बनाने के संबंध में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को जो नसीहत दी है, उसे उनको गौर से सुनना चाहिए। पीएम और सारे सीएम कोर्ट की यह सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं हैं, पर वे अच्छी तरह जानते हैं कि अदालत के सुझाव में देश के करोड़ों लोगों की भावनाएं निहित हैं। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने एक याचिका पर सुनवाई के बाद साफ शब्दों में कहा कि पीएम और सीएम दागियों को कैबिनेट में शामिल न करें। हालांकि पीठ ने साफ किया कि किसी को मंत्री बनाना प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है और अदालत किसी दागी मंत्री की नियुक्ति को रद्द नहीं कर सकती। सन 2004 में मनोज नरूला ने जनहित याचिका दाखिल कर तत्कालीन यूपीए सरकार के कुछ मंत्रियों को हटाने की मांग की थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था। लेकिन याचिकाकर्ता की तरफ से पुनर्विचार याचिका दायर करने पर कोर्ट ने मामले को संविधान पीठ के पास भेज दिया। राजनीति का अपराधीकरण हमारे सिस्टम की सबसे बड़ी बीमारियों में से एक है, जिसके खिलाफ जनता की जंग अर्से से जारी है। न्यायपालिका और निर्वाचन आयोग जैसी संस्थाओं ने भी इसके खिलाफ अपनी सीमाओं में अभियान चलाए हैं। विधायिका में अपराधी तत्वों की मौजूदगी पर रोक के लिए कई कानून भी बने, मगर निर्णायक जीत अभी सपना बनी हुई है। भ्रष्ट और आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेता हर बार संसद और विधानसभाओं में दावे के साथ चुनकर आते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है राजनीतिक दलों का दोहरा चरित्र। वे ऐसे प्रत्याशियों को टिकट न देने के वादे तो करते हैं पर चुनाव आते ही अपना वादा भूल जाते हैं। इसलिए दागी नेता न सिर्फ विधायिका में, बल्कि मंत्रिमंडल तक में जगह पा जाते हैं। मौजूदा केंद्रीय मंत्रिमंडल को ही लें तो इसमें तेरह ऐसे मंत्री हैं, जिन पर गंभीर आरोप लगे हैं। इनमें से एक निहालचंद मेघवाल पर तो बलात्कार जैसा संगीन आरोप लगा हुआ है, और राजस्थान पुलिस अदालत में ऐसा बयान दे चुकी है कि उसे इन मंत्री महोदय का कुछ भी पता-ठिकाना मालूम नहीं है। निहालचंद के अलावा उमा भारती, नितिन गडकरी, मेनका गांधी, डॉ. हर्षवर्धन और रामविलास पासवान जैसे सीनियर मंत्रियों पर भी भ्रष्टाचार आदि से जुड़े कई आपराधिक मामले चल रहे हैं। बीजेपी राजनीतिक शुचिता की बात बहुत ज्यादा करती है। देश में लोकपाल को मुद्दा बनाकर चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का भी उसने खुलकर समर्थन किया था। जाहिर है, उसे जनादेश भी मुख्यत: भ्रष्टाचार के खिलाफ ही मिला है। ऐसे में गंभीर आरोपों से घिरे लोगों को कैबिनेट में जगह देकर क्या प्रधानमंत्री इस जनादेश का मखौल नहीं उड़ा रहे हैं? जनतंत्र में कानून की धाराओं से कहीं ज्यादा ताकत जनता की नजर में होती है। बेहतर है कि पीएम इस नजर की अनदेखी न करें, और सुप्रीम कोर्ट की बात रखते हुए कम से कम उस एक मंत्री से तो निजात पा ही लें, जिसके बारे में उसके राज्य की पुलिस इतना भी नहीं जानती कि अदालत का सम्मन तक उसके पास पहुंचा सके।

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दागियों का सवाल

Thu, 28 Aug 2014

दागी नेताओं को मंत्री बनाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को कोई निर्देश देने के बजाय जिस तरह खुद को केवल सलाह देने तक ही सीमित रखा उसे देखते हुए यह कहना कठिन है कि राजनीतिक दल उसकी राय को पर्याप्त महत्व देंगे। आसार इसी बात के अधिक हैं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद दागी समझे जाने वाले नेता मंत्री बनते रहेंगे। ऐसा इसलिए, क्योंकि दागी की कोई सीधी-सरल परिभाषा नहीं है। राजनीतिक दलों के लिए दोषी सिद्ध न होने तक व्यक्ति निर्दोष है। इतना ही नहीं वे तब तक यह दलील देते रहते हैं जब तक मामले का निपटारा अंतिम तौर पर न हो जाए। ज्यादातर मामलों में ऐसा सुप्रीम कोर्ट के स्तर पर ही होता है। यह तो गनीमत रही कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल में यह पाया कि दो वर्ष से अधिक की सजा वाले मामले में दोषी पाया व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता, अन्यथा वे चुनाव भी लड़ रहे होते और जीतने की स्थिति में मंत्री पद के दावेदार भी बन रहे होते। नि:संदेह नैसर्गिक न्याय का तकाजा यही है कि दोष सिद्ध न होने तक व्यक्ति को निर्दोष माना जाए, लेकिन लोकतंत्र में लोक भावना का भी महत्व है। जब आपराधिक छवि और अतीत वाले नेता मंत्री पदों पर काबिज होते हैं तो इससे लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादा को ठेस पहुंचती है। सबसे खराब बात यह होती है कि राजनीति के अपराधीकरण को बल मिलता है। कई बार राजनीतिक दल इसकी परवाह नहीं करते कि दागी छवि वाले नेता को मंत्रिपरिषद में शामिल करने से जनता और समाज पर क्या असर पड़ने जा रहा है? अक्सर उनके पास यह भी एक आड़ होती है कि गठबंधन राजनीति की मजबूरी के चलते अनचाहे फैसले करने पड़ते हैं। यह शुभ संकेत है कि गठबंधन राजनीति की जड़ें कमजोर होती दिख रही हैं, लेकिन फिलहाल उससे छुटकारा मिलता भी नहीं दिखता।
नि:संदेह सुप्रीम कोर्ट ने यह सही कहा कि किसे मंत्री बनाया जाए और किसे नहीं, यह प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार है, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इस अधिकार की मनचाही व्याख्या होती है। कई बार विपक्षी दल जैसे दागी नेताओं को मंत्री बनाए जाने का विरोध करते हैं सत्ता में आने पर वैसे ही नेताओं को मंत्री बनाने के पक्ष में दलीलें दे रहे होते हैं। चूंकि दागी नेता की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं इसलिए अक्सर ऐसा नेता भी दागियों की सूची में शामिल कर लिए जाते हैं जो धरना-प्रदर्शन के दौरान पुलिस से उलझे होते हैं। बेहतर होगा कि एक ओर जहां राजनीतिक दल दागी छवि वाले लोगों को मंत्री बनाने के साथ-साथ चुनाव मैदान में भी उतारने से बचें वहीं दूसरी ओर न्यायपालिका के स्तर पर ऐसी कोई व्यवस्था बने जिससे गंभीर आरोपों से घिरे नेताओं के मामलों की सुनवाई एक निर्धारित समय में हो सके। अच्छा होगा कि सुप्रीम कोर्ट अपने उस फैसले पर पुनर्विचार करे जिसमें उसने मोदी सरकार की उस याचिका को सुनने से इन्कार कर दिया था जिसमें उससे ऐसा ही अनुरोध किया गया था। यदि गंभीर आरोपों से घिरे विधायकों और सांसदों के मामले का निपटारा एक निश्चित समय में होने लगे तो फिर उनके मंत्री बनने की संभावनाओं पर एक बड़ी हद तक अंकुश लग सकता है।
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सरकार का दामन

जनसत्ता 29 अगस्त, 2014 : सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर सरकार को दागी नेताओं से मुक्त करने की नसीहत दी है। उसने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के विवेक पर छोड़ दिया है कि वे किस तरह अपने मंत्रिमंडल से आरोपी नेताओं को अलग करें। करीब साल भर पहले अदालत ने जन-प्रतिनिधित्व कानून की व्याख्या करते हुए व्यवस्था दी थी कि जिन नेताओं को किसी अदालत से दो साल या इससे अधिक की सजा सुनाई जा चुकी हो, उन्हें अपने पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है। दरअसल जन-प्रतिनिधित्व कानून में राजनेताओं को यह छूट मिली हुई है कि अगर उन्होंने किसी फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत में अपील दायर कर रखी है तो वे अंतिम फैसला आने तक अपने पद पर बने रह सकते हैं। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने उस कानूनी प्रावधान को संविधान के समानता के अधिकार और जन-प्रतिनिधित्व कानून की मूल भावना के विरुद्ध करार दिया था। इस पर लगभग सभी दलों ने एतराज जताया था। विचित्र है कि अदालत के फैसले पर राजनीतिक शुचिता की दिशा में कदम बढ़ाने के प्रयास किए जाने के बजाय पक्ष और विपक्ष दोनों ने चुप्पी साधे रखी। नरेंद्र मोदी ने केंद्र की कमान संभाली तो दावा किया था कि उनकी सरकार में दागी नेताओं के लिए कोई जगह नहीं होगी। मगर हुआ इसके उलट। यही वजह है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद कांग्रेस को उन पर हमले का मौका हाथ लग गया है। मोदी सरकार में शामिल सत्ताईस प्रतिशत मंत्रियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। उनमें से आठ मंत्रियों के विरुद्ध गंभीर आरोप हैं। अब भाजपा यह कह कर अपना बचाव करना चाहती है कि मोदी सरकार में शामिल मंत्रियों पर मुकदमे अयोध्या आंदोलन से जुड़े हैं और फिर अदालत ने सिर्फ सुझाव दिए हैं, आदेश नहीं। मगर अदालतों के सुझाव भी फैसले से कम नहीं होते।  हालांकि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय को फैसला देने से गुरेज नहीं करना चाहिए था। यह तर्क भी सही नहीं है कि मोदी सरकार के जिन मंत्रियों के खिलाफ आरोप हैं वे सभी अयोध्या आंदोलन से जुड़े थे। फिर सांप्रदायिक उन्माद फैलाने, लोगों को फसाद के लिए उकसाने और कानून का सहारा लेने के बजाय अपने तरीके से किसी विवादित स्थल को ध्वस्त कर देने के अपराध को आंदोलन का नाम देकर किसी का बचाव कैसे किया जा सकता है! इससे तो यही जाहिर होता है कि भाजपा को कानून पर भरोसा नहीं है। जिन मंत्रियों के खिलाफ मुकदमे चल रहे हैं, उन पर फैसला वह खुद कैसे सुना सकती है! नितिन गडकरी पर अनियमितता के गंभीर आरोप हैं, जिनके चलते उन्हें दुबारा भाजपा अध्यक्ष बनाने के फैसले पर पार्टी के भीतर ही विद्रोह के स्वर फूट पड़े और उन्हें पीछे हटना पड़ा था। मगर उन्हें मंत्री बनाते समय यह बात दरकिनार कर दी गई। इसी तरह कई मंत्रियों पर रिश्वतखोरी, धमकाने, लोकसेवक को अपनी जिम्मेदारी निभाने से रोकने जैसे गंभीर आरोप हैं। ये बातें छिपी नहीं हैं। खुद इन मंत्रियों ने चुनाव लड़ते समय अपने हलफनामे में ये बातें स्वीकार की थीं। फिर भी उन्हें सरकार में जिम्मेदारियां सौंपने से परहेज नहीं किया गया तो इसे क्या कहें! अब सर्वोच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री और सभी मुख्यमंत्रियों का ध्यान दागी मंत्रियों की तरफ आकर्षित किया है तो संवैधानिक तकाजा है कि वे इस सुझाव पर गंभीरता दिखाएं। नरेंद्र मोदी ने सरकार की कमान संभालने के बाद कहा था कि वे जल्दी ही दागियों की पहचान कर लेंगे। मगर जो मामले अदालतों में लंबित हैं, उन पर फैसला आने में वक्त लगेगा। अगर वे सचमुच बेदाग सरकार के पक्षधर हैं तो उन्हें दागी मंत्रियों के बारे में फिर से विचार करना चाहिए। 
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विधायिका का दामन

जनसत्ता 24 जुलाई, 2014 : विधि आयोग ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि विधायिका में दागियों का प्रवेश रोकने के लिए आरोप तय होते ही अयोग्यता का प्रावधान होना चाहिए। यह कोई नया सुझाव नहीं है। निर्वाचन आयोग पिछले पंद्रह साल में कई बार इसकी सिफारिश कर चुका है। लेकिन इस बारे में तब तक कुछ नहीं हो सकता जब तक सरकार या प्रमुख राजनीतिक दल राजी न हों, क्योंकि जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के बगैर यह संभव नहीं है। विभिन्न पार्टियों ने निर्वाचन आयोग की सिफारिश को कभी गंभीरता से नहीं लिया। लिहाजा, अंदाजा लगाया जा सकता है कि विधि आयोग के सुझाव का क्या हश्र होगा। चुनावी इतिहास यही बताता है कि पार्टियां राजनीति का अपराधीकरण रोकने के लिए संजीदा नहीं रही हैं, वे ऐसे लोगों को भी उम्मीदवार बनाती हैं जिनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे होते हैं। धनबल और बाहुबल जुटाने के चक्कर में उनकी यह कमजोरी बढ़ती गई है। वर्ष 2004 में जो लोग लोकसभा में पहुंचे उनमें चौबीस फीसद आपराधिक मामलों में आरोपी थे। वर्ष 2009 में यह आंकड़ा बढ़ कर तीस फीसद हो गया और सोलहवीं यानी वर्तमान लोकसभा में चौंतीस फीसद। यही हाल विधानसभाओं में भी है। इनमें से कई लोग मंत्रिमंडल में भी जगह पा जाते हैं। इससे विचित्र स्थिति और क्या होगी कि ऐसे लोग कानून बनाने और कानून का पालन सुनिश्चित करने के स्थान पर विराजमान हो जाएं। संसदीय लोकतंत्र का दारोमदार सबसे ज्यादा राजनीतिक दलों पर होता है, पर वही इस हालत के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनहीन दिखते हैं। अगर कुछ सकारात्मक पहल हुई है तो उसका श्रेय सर्वोच्च न्यायालय को जाता है। अदालत के ही आदेश पर उम्मीदवारों के लिए अपनी आय-संपत्ति और अपने खिलाफ चल रहे मुकदमों की जानकारी देना अनिवार्य किया गया, जबकि अधिकतर पार्टियां इसके पक्ष में नहीं थीं। फिर, साल भर पहले सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि निचली अदालत से दोषी ठहराए जाते ही आरोपी जनप्रतिनिधि सदन की सदस्यता के अयोग्य मान लिए जाएंगे। इसके चलते तीन सांसदों की सदस्यता जा चुकी है। इस फैसले से पहले, दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधि ऊपरी अदालत में अपील कर अपनी सदस्यता बनाए रखते थे। लेकिन सर्वोच्च अदालत की तरफ से दी गई अयोग्यता संबंधी यह व्यवस्था फैसले की तारीख से लागू हुई, यानी दस जुलाई 2013 से पहले दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधियों पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। इस साल मार्च में सर्वोच्च न्यायालय ने एक और अहम फैसला सुनाया, वह यह कि जनप्रतिनिधियों से संबंधित मामले निचली अदालत में आरोप तय होने के एक साल के भीतर निपटा दिए जाएं। अयोग्यता संबंधी उसके पिछले फैसले से जोड़ कर यह उम्मीद की गई कि अब दागी सांसदों-विधायकों के लिए ज्यादा समय तक अपनी सदस्यता बनाए रखना संभव नहीं होगा, और पार्टियों को भी सबक मिलेगा। मगर सर्वोच्च अदालत के निर्देश के बावजूद संबंधित मामलों की सुनवाई में कोई तेजी नहीं दिखती। आरोपियों के रसूख और रुतबे को देखते हुए पुलिस ऐसे मामलों की जांच में कोताही बरतती और टोलमटोल करती रहती है, जिससे आरोप तय होने में ही बहुत समय लगता है। निर्वाचन आयोग का सुझाव था कि आरोप तय होते ही उम्मीदवार की अयोग्यता का प्रावधान उसी स्थिति में लागू हो जब आरोप चुनाव से छह महीने पहले तय किए गए हों। विरोधी दलों के राजनीतिकों को झूठे मुकदमों में फंसाए जाने की आशंका जताए जाने पर बाद में उसने इस अवधि को एक साल करने का प्रस्ताव रखा। मगर पार्टियों ने तब भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। यह सचमुच बहुत निराशाजक स्थिति है। अगर पार्टियों को लगता है कि विधि आयोग और निर्वाचन आयोग के सुझाव अव्यावहारिक हैं, तो उन्हें खुद बताना चाहिए कि राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए वे कौन-से कदम उठाने को तैयार हैं!

संसद सदस्यों के आपराधिक मामलों की सुनवाई


न्याय का सवाल
Saturday,Aug 02,2014

सांसदों के आपराधिक मामलों की जल्द सुनवाई के बारे में सुप्रीम कोर्ट का यह कहना सैद्धांतिक तौर पर सही है कि ऐसा करने से एक अलग श्रेणी बन जाएगी, लेकिन अगर महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों से जुड़े मामलों की जल्द सुनवाई की जरूरत महसूस की जा रही है तो फिर ऐसा ही सांसदों के मामले में क्यों नहीं सोचा जा सकता? चूंकि फिलहाल यह प्रश्न अनुत्तरित है और सुप्रीम कोर्ट राजनीति के अपराधीकरण पर लगाम लगाने के लिए संसद सदस्यों के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों के शीघ्र निपटारे के लिए तैयार नहीं इसलिए अब देखना यह होगा कि मोदी सरकार इस सिलसिले में राज्यों से विचार-विमर्श के बाद कोई प्रभावी प्रस्ताव तैयार कर पाती है या नहीं? यह सवाल इसलिए, क्योंकि ज्यादातर राजनीतिक दलों की इसमें दिलचस्पी नहीं कि संसद सदस्यों के आपराधिक मामलों की सुनवाई आनन-फानन हो। उनके रवैये को देखते हुए इसमें संदेह है कि वे इस विषय पर केंद्र सरकार के साथ विचार-विमर्श करने के लिए आगे आएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने सांसदों के आपराधिक मामलों की जल्द सुनवाई के मामले में गेंद न केवल केंद्र सरकार के पाले में डाल दी है, बल्कि नए सिरे से यह भी रेखांकित किया है कि निचली अदालतें किस तरह संसाधनों के अभाव से जूझ रही हैं। इस अभाव के चलते अदालतों में करोड़ों मुकदमे लंबित हैं और फिलहाल इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं कि उनका निपटारा कैसे होगा? 1करोड़ों लंबित मामले सुशासन की बुनियादी धारणा के खिलाफ हैं। देशवासियों को समय पर न्याय न मिलना लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के भी खिलाफ है। हालांकि एक लंबे अर्से से लंबित मुकदमों का मामला बार-बार उठता है। कभी सरकार की ओर से और कभी न्यायपालिका की ओर से, लेकिन ऐसी व्यवस्था बनने के आसार अभी भी नजर नहीं आते जिससे न्यायिक प्रक्त्रिया को गति मिल सके और अदालतों में मुकदमों के बोझ को कम किया जा सके। समय पर न्याय उपलब्ध कराने के लिए त्वरित अदालतों के गठन से भी अभीष्ट की पूर्ति होती नहीं दिखती। इसी तरह सांध्य अदालतों के गठन की प्रक्त्रिया भी अभी अधर में ही है। चिंताजनक यह है कि राच्य सरकारें इसके प्रति तनिक भी सजग नजर नहीं आतीं कि निचली अदालतों में लंबित मुकदमों का निपटारा समय पर हो। निचले स्तर की अदालतों को जरूरी संसाधन प्रदान करने के मामले में ज्यादातर राच्य सरकारों का रवैया ढुलमुल ही है। समस्या यह है कि उच्च न्यायालय भी पर्याप्त संसाधनों से लैस नजर नहीं आते। शायद ही कोई उच्च न्यायालय हो जहां न्यायाधीशों के पद रिक्त न हों। इन स्थितियों में इसका कोई मतलब नहीं कि बार-बार इसका उल्लेख किया जाए कि देश में मुकदमों के निपटारे की प्रक्त्रिया कितनी शिथिल है। इस शिथिलता से देश को उबारने की जिम्मेदारी देश के नीति-नियंताओं की है। बेहतर हो कि वे इस मसले पर उच्चतम न्यायालय के साथ विचार-विमर्श कर कोई ऐसी रूपरेखा तैयार करें जिसे शीघ्र अमल में भी लाया जा सके। लंबित मुकदमों के बोझ को समाप्त करने का यही तरीका है और इस दिशा में आगे बढ़ने में अब और अधिक देरी नहीं होनी चाहिए।
[मुख्य संपादकीय]
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न्याय की गति

नवभारत टाइम्स | Aug 4, 2014

सुप्रीम कोर्ट ने सांसदों के मुकदमों की जल्दी सुनवाई से इनकार करके जो संदेश देने की कोशिश की है, उसे समझने की जरूरत है। कोर्ट ने साफ कर दिया है कि सांसद किसी विशेष वर्ग के तहत नहीं आते। वे एक सामान्य नागरिक हैं और उसी रूप में उन्हें न्याय पाने का भी हक है। हां, यह जरूर है कि इस देश के हरेक नागरिक को जल्दी इंसाफ मिले। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनावी भाषणों में कहा था कि दागी सांसदों और विधायकों के केस एक साल के भीतर निपटाए जाने की पहल होनी चाहिए। पीएम बनने के बाद उन्होंने इस संबंध में कानून मंत्री को निर्देश भी दिए थे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट उनकी इस मांग से सहमत नहीं है। उसने कहा है कि महिलाओं और बुजुर्गों से जुड़े ऐसे बहुत से मुकदमे हैं जिनकी तेज सुनवाई की आज ज्यादा जरूरत है। फिर विभिन्न श्रेणियों में फास्ट ट्रैक सुनवाई से क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में कोई सुधार नहीं हो रहा है क्योंकि निचली अदालतों में कर्मचारियों और सुविधाओं की कमी है। इसलिए कोर्ट ने मोदी सरकार से कहा है कि पूरी न्याय व्यवस्था की गति बढ़ाने के लिए वह राज्यों से सलाह करके एक महीने के भीतर एक ठोस प्रस्ताव लेकर आए। अदालत ने केसों के लंबित रहने पर गहरी चिंता जताते हुए कहा कि मुकदमों का 10-10 साल तक लटके रहना लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। बेहतर गवर्नेंस के लिए न्याय प्रक्रिया तेज होनी ही चाहिए। कोर्ट ने दरअसल यह याद दिलाया है कि जल्दी इंसाफ दिलाने की जवाबदेही अकेले जुडिशरी की नहीं है, कार्यपालिका को भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। लेकिन दिक्कत यह है कि हमारे देश का राजनीतिक नेतृत्व हर स्तर पर अपने लिए विशेषाधिकार सुरक्षित कर लेना चाहता है। वह अपने लिए न्याय तक जल्दी चाहता है। लेकिन कार्यपालिका या विधायिका के सदस्य के रूप में उस साधारण जनता को सहूलियतें दिलाने के लिए तत्पर नहीं रहता, जिसका वह प्रतिनिधित्व करता है। अदालतों में मुकदमों के ढेर के लिए एग्जिक्यूटिव की उदासीनता भी काफी हद तक जवाबदेह है। केसों की सुनवाई इसलिए भी टलती रहती है क्योंकि जज कम हैं। सरकार जजों की नियुक्ति को लेकर काफी सुस्त रही है। फिर निचली अदालतों में बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने पर भी उसका ध्यान नहीं है। कई केस तो पुलिस की ढिलाई की वजह से पेंडिंग पड़े रहते हैं। अगर पुलिस अपनी जांच और दूसरी कार्रवाइयों में तेजी दिखाए तो मुकदमों के बोझ से छुटकारा संभव है। न्यायालयों में मामलों के लंबित रहने से न्याय के प्रति लोगों में आस्था कम हुई है। आज यह राय जोर पकड़ रही है कि न्याय सिर्फ रसूख वालों को मिल पाता है या अदालतें उन्हीं केसों को लेकर गंभीर होती हैं जिनसे किसी न किसी रूप में प्रभावशाली तबका जुड़ा होता है या जिन्हें प्रचार मिलता है। इस धारणा को खत्म करने के लिए कार्यपालिका को सक्रिय भूमिका निभानी होगी और न्यायपालिका के साथ सहयोग करना होगा। 

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार


न्यायपालिका में भ्रष्टाचार 
Tuesday,Jul 22,2014 

उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कडेय काटजू की ओर से किया गया यह खुलासा सनसनीखेज है कि संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल में संकीर्ण राजनीतिक कारणों से उच्च न्यायालय के एक भ्रष्ट जज का न केवल कार्यकाल बढ़ाया गया, बल्कि उसे पदोन्नत भी किया गया। अपने इस आरोप के जरिये वह उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार के मसले को फिर से सतह पर ले आए हैं। हमारे देश में ऐसा रह-रहकर होता है। किसी न किसी बहाने भ्रष्टाचार का मुद्दा सिर उठाता ही रहता है। इसका कारण यह है कि उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। शासन के अन्य क्षेत्रों की तरह न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की मौजूदगी किसी से छिपी नहीं, लेकिन इस पर केवल चर्चा होकर रह जाती है। मोदी सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस बार ऐसा न हो। इसलिए और भी, क्योंकि यह सरकार भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के जिस वायदे के साथ सत्ता में आई है उस पर लोगों ने भरोसा भी किया है। यह वायदा पूरा होना चाहिए और न्यायपालिका के साथ ही अन्य क्षेत्रों में भी भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कारगर उपाय किए जाने चाहिए। इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता कि इसकी शुरुआत उच्च स्तर से हो। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि नई सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक आयोग बनाने पर विचार कर रही है। यह आयोग मौजूदा कोलेजियम प्रणाली की जगह लेगा। यह काम बहुत दिनों से अटका है और जब यह स्पष्ट हो चुका है कि कोलेजियम प्रणाली ही दोषपूर्ण है तब फिर नई व्यवस्था का निर्माण यथाशीघ्र होना चाहिए। यह ठीक नहीं कि जिन क्षेत्रों में सुधार के कदम उठाए जाने हैं वे वर्षो तक लंबित बने रहें। फिलहाल यह कहना कठिन है कि काटजू के आरोपों पर कोई ठोस जांच हो सकेगी या नहीं। चूंकि उनके आरोपों के दायरे में उच्चतम न्यायालय के तीन पूर्व मुख्य न्यायाधीशों के साथ पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी आ रहे हैं इसलिए किसी न किसी स्तर पर यह स्पष्ट होना ही चाहिए कि काटजू के आरोपों में कितनी सत्यता है? उनकी मानें तो तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रमुक की सरकार कथित भ्रष्ट न्यायाधीश के पक्ष में खड़ी थी और वह तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर भी दबाव डालने में सक्षम रही। यह संभव है, क्योंकि मनमोहन सिंह सरकार द्रमुक के समर्थन पर टिकी हुई थी, लेकिन यह समझना कठिन है कि एक के बाद एक सुप्रीम कोर्ट के तीन मुख्य न्यायाधीश भी संदर्भित जज को क्यों संरक्षण देते रहे? इन सवालों के जवाब मिलने के साथ ही खुद मार्कडेय काटजू को भी कुछ सवालों के जवाब देने चाहिए और सबसे पहला सवाल तो यही है कि 2005 के इस मामले को वह 2014 में क्यों उठा रहे हैं? बेहतर होता कि वह इस मामले को तभी उठाते जब गलत होता हुआ देख रहे थे। क्या यह विचित्र नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश रहने के दौरान भी वह इस गलत काम के समक्ष मूकदर्शक बने रहे? उनका यह कहना सही हो सकता है कि समय नहीं, मामले की गंभीरता महत्वपूर्ण है, लेकिन देश यह भी जानना चाहता है कि इस गंभीर मामले में समय रहते हस्तक्षेप क्यों नहीं किया गया?
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सामने से आएं न्यायमूर्ति

नवभारत टाइम्स | Jul 22, 2014

भारत के पूर्व चीफ जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के एक बड़े मामले को उजागर कर जुडिशरी के चरित्र और उसके कामकाज को लेकर एक गंभीर बहस छेड़ दी है। बात जब निकल ही गई है तो दूर तलक जानी चाहिए। हकीकत को छुपाकर रखने का समय जा चुका है। हमारे यहां हायर जुडिशरी की नियुक्ति का तरीका दोषपूर्ण है और इसके लिए कोई नया रास्ता निकाला जाना चाहिए। जस्टिस काटजू ने अपने एक लेख में खुलासा किया है कि मद्रास हाईकोर्ट में एक जज करप्शन के तमाम आरोपों के बावजूद न सिर्फ अपने पद पर बने रहे बल्कि प्रमोशन पाने में भी सफल हो गए। यह लाभ उन्हें इसलिए मिला क्योंकि उन्हें तमिलनाडु के उन शीर्ष राजनेता की कृपा प्राप्त थी, जिनके सपोर्ट के बगैर यूपीए की पहली सरकार चल ही नहीं सकती थी। काटजू के इस बयान से राजनीतिक हलके में बवाल शुरू हो गया है। उनके इरादे और खुलासे के मौके को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। ये सवाल कुछ गिने-चुने लोगों के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं, लेकिन बात इस मुद्दे पर होनी चाहिए कि न्यायपालिका में कदाचार की जड़ें क्यों गहरा रही हैं। पिछले कुछ समय से भारतीय न्यायपालिका का शिखर विवादों में घिरा हुआ है। समस्या यह है कि हमारे देश में इसको एक पवित्र क्षेत्र माना जाता है और इसके किसी भी पहलू को सार्वजनिक चर्चा से दूर रखा जाता है। इस क्षेत्र को पर्दे में ढककर रखने के कारण ही इसमें सुधार की गति जोर नहीं पकड़ पा रही है और हमारे सिस्टम की बुनियाद खोखली होती जा रही है। कई विशेषज्ञ मानते रहे हैं कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में भारी खामियां हैं। पता नहीं क्यों यह मानकर चला जाता है कि इन कुर्सियों पर बैठने वाला शख्स ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ ही होगा। हमारी व्यवस्था के दूसरे अंगों के शीर्ष पर बैठने वाले लोग कठिन प्रतियोगी परीक्षाओं से चुनकर आते हैं और कई तरह के चेक और बैलेंस की प्रणाली से गुजरते हैं। विधायिका के लोग भले ही कोई परीक्षा न देते हों, पर बीच-बीच में उन्हें जनता की अदालत में जाना होता है और उसके प्रति एक हद तक जवाबदेही भी निभानी पड़ती हैं। लेकिन जजों के मामले में ऐसी बात नहीं है। जो जज न्यायिक सेवा के जरिए आते हैं वे जिला स्तर से आगे नहीं बढ़ पाते। हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति जुडिशरी स्वयं करती है, हालांकि व्यावहारिक रूप से इसमें राज्य सरकार का दखल बहुत ज्यादा रहता है। सभी जानते हैं कि राज्यों में सत्तारूढ़ राजनेता अपने हितों का ध्यान रखने वाले वकीलों को न्याय की ऊंची कुर्सियों तक पहुंचाते हैं। जस्टिस काटजू ने सिर्फ इस जानी-पहचानी बात को सार्वजनिक कर दिया है। आजादी के 67 साल गुजर जाने के बाद अगर हम हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के बारे में सोचने तक को तैयार नहीं हैं तो हमारी व्यवस्था के लिए इससे ज्यादा चिंताजनक बात और क्या हो सकती है? 
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साख और सवाल

जनसत्ता 23 जुलाई, 2014 : सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू के खुलासे से न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर गंभीर सवाल खड़े हुए हैं। काटजू ने कहा है कि मद्रास हाइकोर्ट के एक अतिरिक्त न्यायाधीश को, भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद, न केवल बनाए रखा गया, बल्कि सेवा-विस्तार भी दिया गया। यही नहीं, उन्हें बाद में एक दूसरे उच्च न्यायालय में स्थायी जज बना दिया गया। काटजू ने संबंधित जज पर इस मेहरबानी के लिए तीन पूर्व प्रधान न्यायाधीशों को जिम्मेवार ठहराया है, जिन्होंने बारी-बारी से सर्वोच्च न्यायालय की अगुआई की। गौरतलब है कि उच्च न्यायालयों के जजों की नियुक्ति सर्वोच्च अदालत के तीन वरिष्ठतम जजों का कॉलिजियम करता है। सर्वोच्च्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति करने वाली कॉलिजियम में पांच वरिष्ठतम जज शामिल होते हैं। काटजू के मुताबिक जब वे मद्रास हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे, उन्हें वहां के एक अतिरिक्त न्यायाधीश के बारे में भ्रष्टाचार की शिकायतें मिली थीं। उनके आग्रह पर प्रधान न्यायाधीश ने आइबी से इसकी जांच कराई और आरोपों को सही पाया गया। काटजू का दावा है कि आइबी की इस रिपोर्ट के बारे में सर्वोच्च न्यायालय के उन मुख्य न्यायाधीशों को पता था, जिनके नाम उन्होंने लिए हैं। फिर भी मद्रास हाइकोर्ट के संबंधित अतिरिक्त न्यायाधीश के खिलाफ कार्रवाई करने के बजाय उन्हें सेवा विस्तार और पदोन्नति का लाभ दिया गया। यह सब इसलिए हुआ, क्योंकि यूपीए सरकार को समर्थन दे रही तमिलनाडु की पार्टी ने धमकी दी थी कि अगर उस जज के खिलाफ कोई कार्रवाई की गई तो सरकार गिर सकती है। साफ है कि तमिलनाडु की यह पार्टी द्रमुक थी, जिसके एक नेता को उस जज ने जमानत दी थी। इस प्रकरण में द्रमुक के दामन पर तो दाग लगा ही है, तीन पूर्व मुख्य न्यायाधीशों के साथ-साथ कांग्रेस भी कठघरे में खड़ी नजर आती है, जिसने अपनी सत्ता बचाने के लिए बेजा समझौता किया। 2-जी मामले में द्रमुक के दबाव में आकर मनमोहन सिंह ने दूरसंचार मंत्रालय की कमान दोबारा ए राजा को सौंप दी थी और उनके मनमाने फैसलों की तरफ से आंख मूंदे रहे। काटजू का खुलासा यह बताता है कि द्रमुक को खुश रखने और इस तरह अपनी सरकार बचाने के चक्कर में कांग्रेस कॉलिजियम पर दबाव डालने की हद तक चली गई। क्या तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इससे अनजान थे? सवाल यह भी उठता है कि तब के कॉलिजियम ने सरकार की दखलंदाजी के आगे झुकने के बजाय उसे अस्वीकार क्यों नहीं किया? काटजू के बारे में भी यह सवाल उठा है कि उन्होंने यह रहस्योद्घाटन इतनी देर से क्यों किया? अगर वे इस बात को दस साल से जानते थे, तो अब तक उन्होंने चुप्पी क्यों साधे रखी? खुलासे के लिए वक्त का चुनाव करने को लेकर काटजू के जो भी कारण हों, पर यह बेहद गंभीर मामला है और इसकी जांच होनी चाहिए। फिर सवाल न्यायपालिका और सरकार के रिश्ते का है। यों जजों की नियुक्ति और पदोन्नति की प्रक्रिया हमारे देश में पूरी तरह स्वायत्त रखी गई है, वह न्यायपालिका के ही हाथ में है। लेकिन क्या इसे सरकारें परदे के पीछे प्रभावित कर सकती हैं? गोपाल सुब्रमण्यम के मामले में तो यह प्रत्यक्ष रूप से हुआ। जजों की नियुक्ति और पदोन्नति की प्रक्रिया को और पारदर्शी बनाने की जरूरत है; कॉलिजियम की तरफ से दिए गए नामों पर सरकार की राय लेने की परिपाटी खत्म कर उसका जिम्मा एक बहुदलीय संसदीय समिति को दिया जाना चाहिए। 
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कुछ जवाब जस्टिस काटजू को भी देने हैं.

 संजय दुबे

July 21, 2014 
जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने अपने ताजा ब्लॉग में लिखा है कि वे जब मद्रास हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे तब वर्ष 2004 में वहां के एक अतिरिक्त न्यायाधीश की कई शिकायतें मिलने के बाद उन्होंने देश के मुख्य न्यायाधीश से कहकर इसकी आईबी जांच कराई थी. आईबी की रिपोर्ट ने अतिरिक्त जज को भ्रष्टाचार में लिप्त पाया था, लेकिन इसके बाद भी उन्हें कार्यकाल विस्तार दे दिया गया. जस्टिस काटजू के मुताबिक तब के चीफ जस्टिस आरके लाहोटी ने ऐसा यूपीए की केंद्र सरकार के दबाव में किया था जो खुद डीएमके के दबाव में थी. इस मामले को जस्टिस काटजू जिस समय, जिस तरह से दुनिया के सामने लाए हैं और इसके बाद वे जैसा व्यवहार कर रहे हैं उसके चलते कुछ सवाल उनसे भी पूछे जा सकते हैं. 1- जस्टिस काटजू ने तीन पूर्व मुख्य न्यायाधीशों के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अप्रत्यक्ष लेकिन स्पष्ट तौर पर डीएमके के ऊपर भी आरोप लगाए हैं. एनडीटीवी को दिए साक्षात्कार में उन्होंने तमिलनाडु की ‘वर्तमान’ मुख्यमंत्री जयललिता की तारीफ भी की है कि उन्होंने कभी किसी नियुक्ति आदि के लिए उन पर दबाव नहीं डाला जबकि डीएमके ने उनसे कई बार गलत काम करवाने की कोशिश की. थोड़ा सा अजीब है कि जब कांग्रेस और डीएमके केंद्र और राज्य की सत्ता में थीं तब उन्होंने इस मामले पर कुछ नहीं बोला. अब वे न केवल इन दोनों पार्टियों पर भी बड़े आरोप लगा रहे हैं बल्कि कम से कम एक सत्ताधारी पार्टी और उसकी मुखिया – एआईडीएम और जयललिता – की भूरि-भूरि प्रशंसा भी कर रहे हैं. 2-जस्टिस काटजू के मुताबिक उन्हें बाद में पता लगा कि मनमोहन सिंह जब संयुक्त राष्ट्र की बैठक में हिस्सा लेने के लिए न्यूयॉर्क जा रहे थे और हवाईअड्डे पर थे तब वहां डीएमके के एक मंत्री भी थे. इन मंत्री जी ने प्रधानमंत्री से कहा कि जब तक वे न्यूयॉर्क से लौटकर आएंगे तब तक उन जज साहब को हटाने की वजह से उनकी सरकार गिर चुकी होगी. यह सुनकर मनमोहन सिंह घबरा गए. तब एक कांग्रेसी मंत्री ने उन्हें ढाढस बंधाया कि वे आराम से जाएं और इस मामले को वे सुलटा लेंगे. इसके बाद वे मंत्री महोदय मुख्य न्यायाधीश जस्टिस लाहोटी के पास गए. उनसे कहा कि अगर मद्रास हाईकोर्ट के आरोपित जज को कार्यकाल विस्तार नहीं दिया गया तो सरकार संकट में आ जाएगी. इस पर जस्टिस लाहोटी ने सरकार को आरोपित जज साहब का कार्यकाल बढ़ाने वाला पत्र भेज दिया. जस्टिस काटजू ने इस बारे में अपने ब्लॉग और साक्षात्कार में जिस तरह से लिखा-कहा है वह बड़ा अजीब है. यह ऐसा है कि मानो किसी फिल्म का फ्लैशबैक हो जिसमें कोई पात्र उन चीजों के बारे में भी विस्तार से बता रहा होता है जिनकी जानकारी या तो उसे हो ही नहीं सकती या उतनी और वैसे नहीं हो सकती. जितने विस्तार से जिस तरह से उन्होंने अतिरिक्त जज महोदय को विस्तार दिए जाने का वर्णन किया है वह कोई एक-दो नहीं बल्कि इससे कहीं बहुत ज्यादा और मुख्य पात्रों के बहुत करीबी लोगों के जरिये ही किसी को पता चल सकता था. 3-बजाय सिर्फ यह कहने के कि डीएमके के दबाव में आई केंद्र सरकार के दबाव में मुख्य न्यायाधीश ने आरोपित जज को गलत कार्यकाल विस्तार दिया जस्टिस काटजू अपने ब्लॉग में इसका आंखों-देखा हाल सुनाते हैं. लेकिन जब उनसे यह पूछा जाता है कि वे इस मामले को 10 साल तक दुनिया के सामने क्यों नहीं लाए या अब इसके बारे में क्यों बता रहे हैं तो वे सामने वाले को झिड़कने की हद तक नाराज हो जाते हैं. क्या वे नहीं जानते कि एक गलत तरीके से बनाया गया भ्रष्टाचारी जज देश का कितना नुकसान कर सकता है? क्या वे नहीं जानते कि वह जज अगर आगे जाकर हाईकोर्ट का जज बना तो सुप्रीम कोर्ट का भी बन सकता था और इसके और भी गंभीर परिणाम हो सकते थे? आज केवल इस मामले पर अकादमिक बहसें और विवाद आदि ही हो सकते हैं, लेकिन क्या वे तब कुछ नहीं कर सकते थे जब उस कथित भ्रष्टाचारी जज को देश और समाज का नुकसान करने से रोका जा सकता था? क्यों उन्होंने सिर्फ एक बार मुख्य न्यायाधीश से शिकायत करने के बाद इस मामले पर 10 साल का मौन व्रत रख लिया? 4- माना कि जस्टिस काटजू का उठाया मुद्दा पहले जितना न सही लेकिन आज भी बेहद महत्वपूर्ण है, लेकिन क्या जस्टिस काटजू उसके महत्व को खुद ही कम नहीं कर रहे हैं? गैर-जरूरी तफसील में जाकर, उनसे पूछे जाने वाले सवालों पर भड़ककर क्या वे मुख्य मुद्दे से ध्यान भटकाने का काम नहीं कर रहे हैं? अच्छा होता कि वे अपने आपको थोड़ा संयमित रखके केवल एक जज और जजों की नियुक्ति प्रक्रिया पर ही बात करते और जरूरी होने पर ही राजनीति और उसे साधने वालों को भी बीच में लाते. ऐसे नहीं कि सारा मुद्दा उनके बीच ही फुटबॉल बन जाए.
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कठघरे में न्याय तंत्र

Friday,Jul 25,2014

न्याय और न्यायमूर्ति भारत की श्रद्धा हैं। यहां खंडित मूर्तियों की उपासना नहीं होती। न्याय आदिम अभिलाषा है। अन्याय से छुटकारे के लिए ही राजव्यवस्था का जन्म हुआ। न्याय देना राजव्यवस्था का प्रथम कर्तव्य है। यहां संविधान का राज है। न्यायपालिका स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है। न्यायमूर्तियों को हटाने के लिए महाभियोग जैसी जटिल व्यवस्था है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता अक्षुण्ण बनाई गई है बावजूद इसके भारतीय न्याय व्यवस्था काफी लंबे अर्से से प्रश्नवाचक है। न्यायपालिका के कामकाज पर खुली बहस की परंपरा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के प्रशासनिक व्यय, न्यायाधीशों और कर्मचारियों के वेतन भत्ताों पर संसद में भी तर्क नहीं होते, बजट पर मतदान नहीं होता। यही बात हाईकोर्ट पर भी लागू है। न्यायालयों पर बेशक आमजन की श्रद्धा है, लेकिन भ्रष्टाचार और तमाम अनियमितताओं को लेकर बेचैनी भी है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने मद्रास हाईकोर्ट के एक भ्रष्ट जज का कार्यकाल बढ़ाने और पदोन्नत करने की पोल खोली है। संप्रग सरकार का एक और घोटाला सामने आया है। न्यायपालिका में राजनीतिक हस्तक्षेप की यह सनसनीखेज घटना है। सर्वोच्च न्यायालय के तीन पूर्व मुख्य न्यायाधीश भी घेरे में हैं। इस खुलासे के पहले तीन जजों में से एक विवादित जज गोपाल सुब्रह्मण्यम के नियुक्ति प्रस्ताव को मोदी सरकार ने ही रोक दिया है। न्यायपालिका का अपना तंत्र भी अव्यवस्था का शिकार है। स्वच्छ और पारदर्शी न्यायतंत्र अपरिहार्य है। भारतीय समाज में जटिलताएं बढ़ी हैं। सरकारें अपने अधिकारियों और कर्मचारियों के विरुद्ध भी हजारों मुकदमे लड़ रही हैं। हिंसा, आर्थिक असमानता और शोषण के चलते भी मुकदमों की बाढ़ है। आधुनिक तकनीक के चलते साइबर अपराध भी बढ़े हैं। संस्कृति और आपसी प्रेम का वातावरण घटा है। सरकारें आश्वस्त नहीं करतीं। न्यायपालिका के प्रति आदर है। इसलिए भी मुकदमों के अंबार हैं। यहां 21 हाईकोर्ट हैं, लगभग 30 लाख मुकदमे विचाराधीन हैं। देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट में लगभग 40 हजार मुकदमे हैं और निचली अदालतों में लगभग 2.63 करोड़। उच्च न्यायालयों में 300 जजों के पद रिक्त हैं और निचली अदालतों में लगभग 3300 पद। न्याय मिलने में विलंब हो रहा है। न्याय में विलंब अन्याय होता है। देश में अनेक सुधार चल रहे हैं। आर्थिक सुधारों की आंधी पुरानी है। चुनाव सुधारों की बहस जारी है, लेकिन न्यायिक सुधारों पर कोई ठोस कदम नहीं हुआ। मुकदमों का अंबार एक समस्या है, लेकिन जजों की नियुक्ति की पारदर्शी प्रणाली सबसे बड़ी चुनौती है। केंद्र ने काटजू का आरोप सही पाया है। न्यायदाता की नियुक्ति में ही गड़बड़ी और झोल होंगे तो न्यायतंत्र पर भरोसा कैसे होगा? पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक बार फिर लपेटे में हैं। सच क्या है? डॉ. सिंह को बताना ही चाहिए। उन्होंने अपने एक सहयोगी दल की नाराजगी से बचने के लिए ऐसा काम किया है। कांग्रेस ने ही 1993 में एक जज रामास्वामी को लोकसभा में महाभियोग प्रस्ताव से बचाया था। रामास्वामी को हटाने संबंधी महाभियोग पर कांग्रेस व मुस्लिम लीग के 205 सदस्यों ने मतदान में भाग नहीं लिया। जज नियुक्ति की वर्तमान प्रणाली भरोसेमंद नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति के लिए अलग-अलग 'समूह' हैं। उच्च न्यायालय का यह समूह मुख्य न्यायाधीश व वरिष्ठ न्यायाधीशों से मिलकर बनता है। न्यायिक पद पर दस वर्ष सेवारत रहना अथवा दस वर्ष वकालत का अनुभव जजों की नियुक्ति की न्यूनतम योग्यता है। 'समूह' अभ्यर्थियों के नाम राज्य सरकार को भेजता है। राच्य सरकार प्रारंभिक परीक्षणोपरांत यह प्रस्ताव केंद्रीय विधि मंत्रालय भेजती है। विधि मंत्रालय सुप्रीम कोर्ट भेजता है। सुप्रीम कोर्ट का 'समूह' अंतिम निर्णय कर राष्ट्रपति को भेजता है। 'समूह' के सदस्यों के अलावा भी संबंधित हाईकोर्ट के न्यायाधीशों से राय ली जाती है। हाईकोर्ट में नियुक्ति के लिए दो 'समूह' राय देते हैं। पहले हाईकोर्ट का समूह और फिर सुप्रीम कोर्ट का। सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति के लिए इसी कोर्ट का समूह काम करता है। समूह या कोलेजियम प्रणाली में केंद्र या राच्य सरकार का अभिमत महत्वपूर्ण नहीं है। कहा जा सकता है कि ऐसा न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए जरूरी भी है। असल में 'समूह' की यह पद्धति 9 न्यायाधीशों की एक पीठ के निर्णय से विकसित हुई। जजों की नियुक्ति का संवैधानिक अधिकार राष्ट्रपति का है। संविधान में कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक जज की नियुक्ति राष्ट्रपति करेंगे। वे उच्चतम न्यायालय या हाईकोर्ट के जजों से, जिनसे जरूरी समझते हैं, परामर्श करेंगे। पीठ ने व्याख्या की कि परामर्श का अर्थ सहमति होगा। 'समूह' द्वारा जज नियुक्तिकी प्रणाली पारदर्शी और विश्वसनीय नहीं है। हाईकोर्ट में वकालत करने वाले अधिवक्ताओं का बड़ा भाग हाईकोर्ट का जज बनता है। अधीनस्थ अदालतों के जजों का कोटा कम है। वकालत के चलते स्थानीय स्तर पर अनेक संबंध बनते बिगड़ते हैं। अधिवक्ता का जज बनना अनुचित नहीं है, लेकिन उसकी नियुक्ति अपने राच्य क्षेत्र के बाहर के हाईकोर्ट में होने से निर्णय च्यादा भरोसेमंद होंगे। केंद्र सरकार को इस विकल्प पर विचार करना चाहिए। भारत को अखिल भारतीय न्यायिक सेवा चाहिए। राच्य स्तर पर न्यायिक सेवाएं हैं। मुंसिफ कनिष्ठ जज कड़ी परीक्षा देते हैं। वे जिला जज की कुर्सी तक पहुंचते हुए रिटायर हो जाते हैं। कुछ भाग्यशाली ही हाईकोर्ट तक पहुंचते हैं। भारतीय प्रशासनिक सेवा/विदेश सेवा की तर्ज पर जजों की भर्ती के लिए न्यायिक सेवा का गठन क्यों नहीं हो सकता? अखिल भारतीय परीक्षा से चयनित जज हरेक दृष्टि से सक्षम और योग्य होंगे। जजों के चयन की इससे बेहतर और पारदर्शी दूसरी कोई व्यवस्था नहीं हो सकती। केंद्रीय विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने वर्तमान 'समूह' प्रणाली के स्थान पर राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बनाने की घोषणा की है। संप्रग सरकार ने भी नया 'न्यायिक नियुक्ति आयोग' बनाने का विधेयक पिछले साल अगस्त में पेश किया था। लोकसभा भंग हो जाने के कारण रुक गया। उम्मीद है कि न्यायतंत्र को चुस्त करने संबंधी कानून अतिशीघ्र पारित होगा। न्याय आधारभूत आवश्यकता है। न्याय होता दिखाई पड़ना और भी अपरिहार्य। भारतीय न्यायपालिका संयुक्त राच्य अमेरिका और इंग्लैंड से भी च्यादा शक्तिशाली है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय संविधान का संरक्षक है। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट कार्यपालिका को परामर्श नहीं देता। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय राष्ट्रपति को परामर्श भी देता है। इंग्लैंड व अमेरिका में न्यायमूर्तियों की नियुक्ति कार्यपालिका ही करती है। भारत में भी समूचे न्याय तंत्र में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है।
[लेखक हृदयनारायण दीक्षित, उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं]

मर्यादा के खिलाफ

:17-09-14 08


इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अशालीन आचरण और दुर्व्यवहार के आरोप में कुछ ट्रेनी जजों को नौकरी से हटाने की सिफारिश की है। ये लोग लखनऊ के न्यायिक शिक्षा और शोध संस्थान में प्रशिक्षण के लिए भेजे गए थे और इन पर आरोप है कि एक रेस्तरां में शराब पीकर इन्होंने अशालीन आचरण किया था। हाईकोर्ट ने इस मामले की जांच के लिए एक कमेटी बनाई थी, जिसकी रिपोर्ट में इस आरोप की पुष्टि हुई और इसके बाद इन ट्रेनी जजों को हाईकोर्ट ने हटाने की सिफारिश की है। हाईकोर्ट की इस कार्रवाई से न्यायपालिका में लोगों का यकीन बढ़ेगा और निचली अदालतों में काम करने वाले न्यायिक अधिकारियों को भी अनुशासित रहने का संदेश मिलेगा। जाहिर है, इस एक कांड से समूची न्यायपालिका के बारे में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता, लेकिन यह तो आम तौर पर दिखता है कि निचले स्तर पर न्यायपालिका में बहुत सुधार की गुंजाइश है। काफी हद तक यह समस्या न्यायपालिका की नहीं, बल्कि हमारे पूरे समाज की कही जा सकती है। जज भी समाज के ही अंग हैं, इसलिए यह समस्या न्यायपालिका में भी दिखाई देती है। हमारे समाज में कानून के पालन को लेकर बहुत शिथिलता है और अक्सर कानून का पालन न करने को सामाजिक हैसियत का मानक मान लिया जाता है। वीआईपी संस्कृति का मूल सिद्धांत ही यह है कि जिसे सामान्य नियम-कानून नहीं पालन करने होते, वह महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है। छोटे शहरों, कस्बों में सरकारी अफसरों की हैसियत बहुत बड़ी होती है और जज भी उन्हीं हैसियत वाले लोगों में शामिल होते हैं। ऐसे में, अगर कुछ जज यह मान लें कि वे तमाम सामाजिक मर्यादाओं से भी ऊपर हैं, तो यह हो सकता है। माना यह जाना चाहिए कि जितने ज्यादा जिम्मेदार पद पर कोई व्यक्ति है, उस पर कानून के पालन की जिम्मेदारी भी उतनी ही ज्यादा है। खास तौर से जिन लोगों पर कानून की रक्षा करने और दूसरों से कानून का पालन करवाने की जिम्मेदारी है, उन्हें तो इस मामले में बहुत ज्यादा सतर्क होना चाहिए। लेकिन वास्तव में, इससे बिल्कुल उल्टा होता है। एक समस्या की ओर कई वरिष्ठ जज और न्यायविद ध्यान दिला चुके हैं कि न्यायपालिका में निचले स्तर पर अच्छे जज नहीं मिलते। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि अच्छे न्यायिक शिक्षा संस्थानों से निकले अच्छे छात्र न्यायपालिका में नौकरी करना पसंद नहीं करते, क्योंकि उन्हें कामकाज की परिस्थितियां और आमदनी, दोनों ही आकर्षक नहीं लगतीं। नेशनल लॉ इंस्टिट्यूट को तो बनाया ही इसलिए गया था कि अच्छे स्तर के जज और वकील वहां से निकल सकें, लेकिन देखा यह गया है कि वहां से निकले ज्यादातर छात्र कॉरपोरेट लॉ में चल जाते हैं। अन्य प्रतिष्ठित संस्थानों के छात्र भी बजाय जज बनने के प्रैक्टिस करना पसंद करते हैं। जजों की चुनाव प्रक्रिया में भी कई खामियां हैं, जिन्हें दूर किया जाना जरूरी है, ताकि हर स्तर पर बेहतर गुणवत्ता के जज मिल सकें। दुर्व्यवहार के मामले न्यायपालिका में हर स्तर पर अब सामने आ रहे हैं। इसकी वजह यह नहीं लगती कि ऐसे मामले बढ़ गए हैं, बल्कि शायद यह है कि लोग अब इसकी शिकायत करने का साहस जुटाने लगे हैं। यहां तक कि हाल के दिनों में महिलाओं से भी दुर्व्यवहार के कई मामले सामने आए हैं, लेकिन अब तक इस मामले में लोगों को शिक्षित करने और शिकायत निवारण का तंत्र विकसित करने की मुकम्मल कोशिशें नहीं हुई हैं। यह भी एक अजीब बात है कि न्यायपालिका को लेकर ही तरह-तरह के मामले सामने आ रहे हैं। सवाल न्यायपालिका की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता का है, इसलिए ऐसे मामलों में सख्त कार्रवाई जरूरी है।



कॉलेजियम पर सवाल

कठघरे में खड़ी जजों की नियुक्ति 
23-07-14

सुधांशु रंजन, टेलीविजन पत्रकार

कॉलेजियम व्यवस्था फिर चर्चा में है। कॉलेजियम उच्चतम न्यायालय की वह व्यवस्था है, जिससे उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति होती है। कॉलेजियम की कार्य-प्रणाली को लेकर सवाल कोई पहली बार नहीं उठा है। सच तो यह है कि 1993 में, जब से जजों की नियुक्ति का काम कार्यपालिका के हाथ से न्यायपालिका के हाथों में आया है, तभी से इस व्यवस्था पर सवाल उठ रहे हैं। हाल ही में जब जज के पद पर गोपाल सुब्रमण्यम की नियुक्ति पर उच्चतम न्यायालय और केंद्र सरकार के बीच टकराव की स्थिति पैदा हुई थी, तब भी कॉलेजियम व्यवस्था पर विवाद खड़ा हुआ था। ताजा विवाद मद्रास हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश और उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश रह चुके मरकडेय काटजू के एक लेख से खड़ा हुआ है, जिसमें उन्होंने एक तदर्थ जज को सेवा विस्तार देने का मामला उठाया है। इन जज के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतें थीं, लेकिन यूपीए में शामिल दल द्रमुक उसके पक्ष में था। पहले उन्हें सेवा विस्तार दिया गया और बाद में स्थायी जज बना दिया गया। वैसे न्यायमूर्ति काटजू ने जो मामला उठाया है, वह कोई नया नहीं है। प्रसिद्ध वकील शांति भूषण ने इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में उठाया भी था। न्यायालय ने वह याचिका खारिज कर दी, किंतु यह भी कहा कि इसमें भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश की भूमिका सही नहीं थी। फिलहाल सारी बहस में एक बड़ा सवाल यह भी बन गया है कि काटजू ने इस मुद्दे को उठाने के लिए यही समय क्यों चुना? वह इस मामले में इतने दिनों तक चुप क्यों रहे? अगर सेवा विस्तार का यह फैसला काटजू की सिफरिश के विपरीत था, तो उन्होंने इस पर अपनी आपत्ति क्यों नहीं दर्ज कराई? कॉलेजियम के काम करने का एक तरीका यह भी है कि इसमें उन जजों से भी परामर्श किया जाता है, जो उस उच्च न्यायालय से आते हैं, जिसके लिए जज की नियुक्ति हो रही है। भले ही वे जज कॉलेजियम के सदस्य न हों। यदि इसके लिए काटजू से सलाह नहीं ली गई, तब भी वह स्वतंत्र रूप से अपना विरोध लिखित रूप में दे सकते थे। उन्होंने लिखा है कि उस जज के विरुद्ध आठ जजों ने प्रतिकूल टिप्पणियां की थीं, जिसे मद्रास उच्च न्यायालय के एक कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश ने एक झटके में खत्म कर दिया। अगर ऐसा हुआ, तो यह पूरी तरह गलत था, क्योंकि मुख्य न्यायाधीश को मामला न्यायालय के पूर्ण पीठ को सौंपना चाहिए था। लेकिन यदि ऐसा नहीं किया गया, तो न्यायमूर्ति काटजू ने बाद में ऐसा क्यों नहीं किया? वह उस घटना के बाद मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे और वह पूर्ण पीठ को उस पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकते थे। भले ही मौखिक या लिखित रूप से उन्होंने भारत के प्रधान न्यायाधीश को सूचना दी हो और खुफिया ब्यूरो से जांच करवाने की सिफारिश की हो, पर यह पर्याप्त नहीं था। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अनुशंसा के बिना उस न्यायालय के किसी अतिरिक्त जज को सेवा विस्तार नहीं दिया जा सकता। उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में रिकॉर्ड किया है कि एक के बाद एक मुख्य न्यायाधीशों ने उस जज पक्ष में सिफारिश की। फिर न्यायमूर्ति काटजू उसी कॉलेजियम की आलोचना कर रहे हैं, जिसने उन्हें उच्चतम न्यायालय का जज बनाया। वैसे भी वह कॉलेजियम व्यवस्था के अंतर्गत ही उच्च न्यायालय के जज बने थे। हो सकता है कि अपनी पदोन्नति की चिंता में उन्होंने तब कॉलेजियम को नाराज करना उचित न समझा हो। इसे लेकर अब न्यायपालिका की स्वायत्तता का मामला उठाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि एक अस्थायी जज की सेवा स्थायी करने के लिए राजनीतिक दबाव डाला गया। अग यह सच है, तो यह भी उतना ही सही है कि स्वायत्तता को खतरा केवल बाहर से नहीं, बल्कि अंदर से भी है। यह एक सच्चाई है कि उच्च न्यायालय का कोई भी न्यायाधीश कॉलेजियम के सदस्यों को नाराज नहीं  करना चाहता है। यह तथ्य भी सामने आया है कि प्रधानमंत्री कार्यालय से 17 जून, 2005 को न्याय मंत्रलय को इस जज की सेवा स्थायी करने के लिए पत्र लिखा गया था और फिर तत्कालीन विधि मंत्री हंसराज भारद्वाज ने प्रधान न्यायाधीश को पत्र लिखा। सरकार के हर पत्र या उसकी हर आशंका को राजनीतिक हस्तक्षेप मानना गलत है। कार्यपालिका को पूरा अधिकार है कि यदि कोई सूचना उसे मिलती है या ऐसा लगता है कि कुछ गलत हुआ है, तो उसे वह प्रधान न्यायाधीश की नजर में लाए। पर काटजू का कहना है कि ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि गठबंधन के सहयोगी दल ने मनमोहन सिंह सरकार को गिराने की धमकी दी। पता नहीं काटजू ने किस आधार पर इतने आधिकारिक तौर पर ऐसा लिखा है। परंतु यदि यह सत्य है, तो निश्चित रूप से यह न्यायपालिका की स्वायत्तता पर कुठाराघात है। इससे एक बात और प्रमाणित होती है कि कॉलेजियम व्यवस्था के बावजूद सरकार जिसकी नियुक्ति करवाना चाहती है, करा लेती है। कॉलेजियम व्यवस्था जब बनी थी, तब यह तर्क दिया गया था कि सरकार सबसे बड़ी मुकदमेबाज बन गई है और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए जजों की नियुक्ति का अधिकार उसके पास नहीं होना चाहिए। काटजू के खुलासे से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन की बात भी उठने लगी है। विधि मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने संसद को इसका आश्वासन दिया है। राज्यसभा में तो इस बारे में विधेयक भी पारित हो चुका है। लोकसभा में यह भाजपा के विरोध के कारण पारित नहीं हो पाया था। भाजपा का तर्क था कि आयोग के गठन का प्रावधान भी संविधान में शामिल किया जाना चाहिए, ताकि उसमें परिवर्तन करने के लिए संविधान संशोधन की जरूरत पड़े, जिसके लिए दो-तिहाई बहुमत की जरूरत होती है, जबकि सामान्य कानून में संशोधन सामान्य बहुमत से हो जाता हैं। इन विवादों ने बता दिया है कि कॉलेजियम व्यवस्था असफल हो चुकी है। परंतु दूसरी जो भी व्यवस्था हो, उसमें ऐसा इंतजाम जरूरी है कि सौदेबाजी न हो और सही व्यक्ति जज बने। फिलहाल न्यायमूर्ति काटजू को इस बात का जवाब देना होगा कि उच्चतम न्यायालय से अवकाश ग्रहण करने के बाद भी वह तीन वर्षो तक चुप क्यों रहे? बोले भी तब, जब भारतीय प्रेस परिषद का उनका कार्यकाल समाप्त हो रहा है और जिस जज के बारे में वह बोल रहे हैं, उनका पांच साल पहले ही निधन हो चुका है।
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कॉलेजियम पर सवाल
11-08-14 08
इन दिनों लगातार उच्च न्यायपालिका के जजों की नियुक्ति को लेकर बहस छिड़ी हुई है। सरकार चाहती है कि जजों की नियुक्ति के लिए जो मौजूदा कॉलेजियम व्यवस्था है, उसे बदलकर एक न्यायिक आयोग के जरिये ये नियुक्तियां की जाएं, जिसमें सिर्फ जर्ज नहीं हों, बल्कि न्यायपालिका के बाहर से भी प्रतिष्ठित लोगों को उसमें रखा जाए। यह विचार मौजूदा केंद्र सरकार के साथ नहीं आया है, संप्रग सरकार भी कुछ ऐसा ही इरादा रखती थी और उसने अपनी ओर से पहल भी की थी, जो अपेक्षित नतीजे तक नहीं पहुंच पाई। इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा प्रधान न्यायाधीश आर एस लोढ़ा ने इस विवाद का विरोध किया है। उनका कहना है कि मौजूदा कॉलेजियम व्यवस्था अच्छी तरह से काम कर रही है और इस पर सवाल उठाने से लोगों का न्यायपालिका पर से विश्वास उठ जाएगा। इस बीच सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड न्यायाधीश मरकडेय काटजू ने एकाधिक बार इस मुद्दे पर लिखा है कि किस तरह से उच्च न्यायपालिका में भ्रष्ट जज घुस आए हैं और सबूत मिलने पर भी कुछ प्रधान न्यायाधीशों ने भ्रष्ट जजों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। काटजू का यह कहना है कि न्यायपालिका की साख बचाने के कथित उद्देश्य से भ्रष्ट जजों को बचा लिया जाता है। कई न्यायविद इससे सहमत हैं कि मौजूदा कॉलेजियम व्यवस्था संविधान में जजों की नियुक्ति को लेकर बनाई गई व्यवस्था के अनुरूप नहीं है। उनका तर्क है कि संविधान के अनुच्छेद-124 और 217 के मुताबिक, उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति भारत के प्रधान न्यायाधीश, हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों की सलाह पर राष्ट्रपति करेंगे, यानी सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति नियुक्तियां करेंगे। इससे जाहिर है कि नियुक्ति करने का अधिकार सरकार का है और न्यायाधीशगण उसमें सलाह दे सकते हैं। सन 1981 में इस मामले में एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने भी इसी बात का समर्थन किया था। इसके बाद के दो फैसलों में सुप्रीम कोर्ट ने इससे अलग राय देते हुए कहा कि जजों का चयन प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व में वरिष्ठ जजों का एक कॉलेजियम करेगा, सरकार इस चयन पर आपत्ति जरूर दर्ज करा सकती है, लेकिन अंतिम फैसला कॉलेजियम की करेगा। इसके पीछे मंशा यह रही थी कि राजनीतिक हस्तक्षेप से जजों की नियुक्ति को बचाया जाए और न्यायपालिका की स्वायत्तता की रक्षा की जाए। जानकार मानते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जजों की नियुक्ति में लोकतंत्र के अन्य संस्थानों का भी दखल होना चाहिए और संविधान भी यही कहता है। कॉलेजियम व्यवस्था निहायत अपारदर्शी है, उसमें पक्षपात के आरोप भी सामने आए हैं। यह भी देखने में आया है कि कई अयोग्य या भ्रष्ट जज या तो तरक्की पा गए या उन्हें अयोग्यता या भ्रष्टाचार का खामियाजा भुगतने से बचा लिया गया। जब हम तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं से पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग करते हैं, तो न्यायपालिका भी उनमें शामिल है। जरूरी यह है कि न्यायपालिका की स्वायत्तता भी बनी रहे और संविधान के अनुरूप व्यवस्था भी हो। इस नजरिये से जजों की नियुक्ति के लिए स्वायत्त न्यायिक आयोग बनाना एक अच्छा विचार है। भारत में लोकतंत्र अब ज्यादा परिपक्व हो गया है और अब न्यायपालिका की स्वतंत्रता को ऐसा कोई खतरा नहीं है, जैसा आपातकाल में था। अब खतरा है, तो वह पारदर्शिता की कमी से है। उच्च न्यायपालिका की विश्वसनीयता सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं में सबसे ज्यादा है और नियुक्तियों में पारदर्शिता से वह और बढ़ेगी।
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न्यायपालिका और सरकार

जनसत्ता 03 जुलाई, 2014 :

पूर्व महाधिवक्ता गोपाल सुब्रमण्यम को सर्वोच्च न्यायालय का जज नियुक्त करने की कॉलिजियम की सिफारिश नकार दिए जाने पर प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा की प्रतिक्रिया ने सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है। करीब एक पखवाड़े से चल रहे इस विवाद पर न्यायमूर्ति लोढ़ा ने पहली बार चुप्पी तोड़ी है। गौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत में नए जजों के नाम प्रस्तावित करने वाली समिति यानी कॉलिजियम ने सुब्रमण्यम के अलावा तीन और नामों की भी सिफारिश केंद्र सरकार को भेजी थी। सरकार ने वे तीन नाम तो स्वीकार कर लिए, पर सुब्रमण्यम के लिए हरी झंडी नहीं दी। इससे नाराज सुब्रमण्यम ने जज बनने के लिए दी गई अपनी सहमति वापस ले ली। फिर, यह माना जा रहा था कि यह प्रकरण खत्म हो गया है। लेकिन इस पर प्रधान न्यायाधीश की टिप्पणी ने इसे फिर चर्चा का विषय बना दिया है। उन्होंने सुब्रमण्यम का नाम सिफारिशों से अलग रखने के सरकार के इकतरफा फैसले को आपत्तिजनक करार देते हुए कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, ऐसा हुआ तो वे पद छोड़ने से भी नहीं हिचकेंगे। यों सुब्रमण्यम के नाम पर फिर से विचार किए जाने की अब कोई संभावना नहीं है, क्योंकि वे अपनी सहमति वापस लेने का निर्णय अंतिम रूप से जता चुके हैं, और सरकार के लिए राहत की बात बस यही है। मगर इस मामले में प्रधान न्यायाधीश का बयान एक असामान्य घटना है और निश्चय ही इससे मोदी सरकार की साख को चोट पहुंची है। कानूनमंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि सुब्रमण्यम से संबंधित सिफारिश रोकी नहीं गई, बस उनकी बाबत सत्यापन होने में देर हो रही थी। यह सफाई लीपापोती के अलावा और कुछ नहीं है। सुब्रमण्यम के बारे में नीरा राडिया टेप में उनका जिक्र आने से लेकर कई तरह की बातें फैलाई गर्इं। इससे यही धारणा बनी कि सरकार को उनका दामन पाक-साफ होने को लेकर संदेह है। अगर सरकार का यही रुख था तो अब महज सत्यापन में देरी होने की बात क्यों कही जा रही है! नए जजों की नियुक्ति का हक कॉलिजियम को है, सरकार को सिफारिश भेजना औपचारिकता ही रही है। अलबत्ता इसके पहले भी एक-दो उदाहरण मिल जाएंगे, जब कॉलिजियम के सुझाए नामों से कोई जज बनने से रह गया हो। पर अपवाद को सरकार अपना पक्ष नहीं बना सकती। अगर उसे सुब्रमण्यम को लेकर कुछ शंका थी, तो तथ्यों की बिना पर प्रधान न्यायाधीश से विचार-विमर्श करना चाहिए था। पर ऐसा नहीं किया गया। सुब्रमण्यम ने सोहराबुद््दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमित्र का दायित्व निभाया था। उनसे जुड़ी सिफारिश रोक लिए जाने के पीछे कहीं यही वजह तो नहीं थी? जो हो, पर इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि अमित शाह की अपील खारिज कर दिए जाने के बाद कुछ ही दिनों में संबंधित जज का तबादला हो गया। पिछले दिनों राष्ट्रीय आपदा प्राधिकरण के उपाध्यक्ष पद से सलीम अली को हटना पड़ा, जो सीबीआइ के विशेष निदेशक रह चुके थे और जिन्होंने इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ कांड की जांच की थी। इन अनुभवों के मद््देनजर यह सवाल उठता है कि जज के रूप में सुब्रमण्यम की नियुक्ति न होने देने का रवैया क्या सरकार ने किसी खुंदक के चलते अपनाया, और क्या वह न्यायपालिका पर अपनी पसंद थोपना चाहती है? जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर जब-तब बहस चलती रही है और कॉलिजियम प्रणाली पर सवाल भी उठाए जाते रहे हैं। इसके विकल्प के रूप में ही न्यायिक नियुक्ति एवं जवाबदेही आयोग गठित करने की बात यूपीए सरकार के समय चली थी, जिससे संबंधित विधेयक पास नहीं हो सका। पर जजों की नियुक्ति को सरकार प्रभावित करे, यह तो किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं हो सकता। 
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कोलेजियम पर सवाल
Tuesday,Aug 12,2014

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने यह कह कर कोलेजियम को लेकर जारी बहस को और गति देने का ही काम किया है कि न्यायपालिका को बदनाम करने के लिए भ्रमित करने वाला अभियान चलाया जा रहा है। यह कहना कठिन है कि उनका इशारा किसकी ओर है, लेकिन शायद वह उन खुलासों के संदर्भ में अपनी बात कह रहे थे जो सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व न्यायाधीश मार्कडेय काटजू की ओर से किए जा रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से मार्कडेय काटजू एक के बाद एक ऐसे खुलासे कर रहे हैं जो न्यायपालिका की साख पर असर डालने वाले हैं। उनकी मानें तो सुप्रीम कोर्ट के कई पूर्व न्यायाधीशों ने भ्रष्ट छवि अथवा कथित तौर पर भ्रष्टाचार में लिप्त न्यायाधीशों के खिलाफ वैसी कार्रवाई नहीं की जैसी अपेक्षित थी। हालांकि उनके खुलासों पर यह सवाल उठ रहा है कि आखिर वह इतने दिनों बाद पुराने प्रसंगों को क्यों कुरेद रहे हैं, लेकिन मुश्किल यह है कि उनके आरोपों को निराधार भी नहीं ठहराया जा सकता। मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा इस नतीजे पर भी पहुंचते दिख रहे हैं कि न्यायाधीशों के चयन की मौजूदा कोलेजियम व्यवस्था सही है। वह कोलेजियम की तरफदारी एक ऐसे समय करते दिख रहे हैं जब केंद्र सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक आयोग बनाने की दिशा में आगे बढ़ रही है। इसे संयोग कहें या दुर्योग कि गत दिवस ही सरकार ने कोलेजियम व्यवस्था को खत्म कर छह सदस्यीय एक आयोग के गठन संबंधी संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश किया है। ऐसे किसी आयोग के गठन की कोशिश एक लंबे अर्से से हो रही है, लेकिन किन्हीं कारणों से वह परवान नहीं चढ़ी। देखना यह है कि कोलेजियम के स्थान पर नई व्यवस्था का निर्माण हो पाता है या नहीं?
चूंकि मुख्य न्यायाधीश ने स्पष्ट रूप से यह कहा है कि यदि कोलेजियम गलत है तो हम भी गलत हैं इसलिए संकेत यही मिलता है कि वह अभी भी कोलेजियम व्यवस्था को ही उपयुक्त मान रहे हैं। ऐसी ही राय अन्य अनेक विधि विशेषज्ञों की भी है, लेकिन बहुत से न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में नई व्यवस्था चाह रहे हैं। इसके पीछे कुछ ठोस आधार भी हैं। एक आधार तो मार्कडेय काटजू ही उपलब्ध करा रहे हैं। इसके अतिरिक्त यह भी सामने आ चुका है कि अतीत में कई योग्य न्यायाधीशों का सुप्रीम कोर्ट में चयन नहीं हो सका और कोई नहीं जानता कि ऐसा क्यों हुआ? कोलेजियम व्यवस्था अपारदर्शी भी है और इस व्यवस्था में एक तरह से न्यायाधीश ही न्यायाधीशों का चयन करते हैं। ऐसा अन्य लोकतांत्रिक देशों में मुश्किल से ही देखने को मिलता है। मुख्य न्यायाधीश का नजरिया कुछ भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कोलेजियम व्यवस्था की खामियां सामने आ चुकी हैं। इसके स्थान पर एक आयोग के गठन की जो पहल की जा रही है उसके संदर्भ में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में सरकार की भूमिका ज्यादा प्रभावी न होने पाए। यदि ऐसा होता है तो एक खामी से दूसरी खामी की ओर बढ़ने वाली बाती होगी। यद्यपि ऐसी किसी व्यवस्था का निर्माण करना कठिन है जिसमें तनिक भी खामी न हो, लेकिन ऐसी कोशिश तो हो ही सकती है जिससे गलतियों की गुंजाइश न रहे। बेहतर हो कि सरकार और न्यायपालिका आपस में विचार-विमर्श कर नई व्यवस्था के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ें।
[मुख्य संपादकीय]
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संविधान की कसौटी
15-08-14 

उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति के लिए मौजूदा कॉलेजियम व्यवस्था को खत्म कर नई व्यवस्था बनाने के वास्ते पेश किया गया विधेयक राज्यसभा से भी पारित हो गया। अब इसे विधानसभाओं में भेजा जाएगा। जब कम से कम आधे राज्यों की विधानसभाएं इसे पास कर चुकेंगी, तब यह राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए जाएगा और बाकायदा कानून बन जाएगा। इस बिल के नुक्तों पर बात करने के पहले यह बात कहना जरूरी है कि बड़े दिनों बाद कोई महत्वपूर्ण बिल संसद के दोनों सदनों से पास हुआ है। संप्रग-2 के दौर में ज्यादातर विधायी काम अटके हुए थे और मुश्किल से आम बजट व रेल बजट जैसे अनिवार्य काम दोनों सदनों में हो पाते थे। इस बिल को पेश करना और इसे इतनी जल्दी पास करा लेना यह बताता है कि सरकार तेजी से कामकाज करना चाहती है। इस बिल का पास होना लोकसभा में भाजपा के स्पष्ट बहुमत और विपक्ष की खस्ता हालत को दिखाता है। इससे यह भी पता चलता है कि इस सरकार का संसदीय प्रबंधन चुस्त-दुरुस्त है, क्योंकि राज्यसभा में यह बिल लगभग सर्वसम्मति से पास हो गया, सिर्फ एक सदस्य राम जेठमलानी ने विरोधस्वरूप मतदान में हिस्सा नहीं लिया। यदि संसद के आने वाले सत्रों में भी इतनी तेजी व शांति से कामकाज चलता रहा, तो शायद बहुत सारा महत्वपूर्ण संसदीय काम इस कार्यकाल में हो सकता है। इस बिल को कानून बनाने से पहले सरकार को एक बड़ी चुनौती से निपटना पड़ेगा। और यह चुनौती न्यायपालिका से आएगी, जहां इस बिल के संविधान सम्मत होने की जांच होगी। न्यायिक प्रणाली से जुड़े कई लोग कॉलेजियम व्यवस्था के पक्षधर हैं, तो कई बिल के मौजूदा स्वरूप से नाखुश हैं। संविधानविद फली नरीमन इस बिल से नाखुश हैं, तो पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल घोषणा कर चुके हैं कि वह इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगे। इस बिल को लेकर आपत्तियां मुख्यत: चयन समिति में न्यायपालिका से इतर सदस्यों को लेकर है। कुछ लोगों का कहना है कि कानून मंत्री को इस समिति में नहीं होना चाहिए, क्योंकि कानून मंत्री अमूमन वकील होते हैं और उनके अपने पूर्वाग्रह हो सकते हैं। राम जेठमलानी का कहना है कि बार काउंसिल के प्रतिनिधि का इस समिति में होना जरूरी है, क्योंकि वे लोग उम्मीदवारों के बारे में बेहतर जानते हैं। इस पर भी आपत्ति की गई है कि बिल में प्रावधान है कि अगर समिति के छह में से दो सदस्य किसी नाम से असहमत हैं, तो वह नाम स्वीकृत नहीं होगा। न्यायिक व्यवस्था से जुड़े लोगों को यह लगता है कि इस तरह बाहरी लोग प्रधान न्यायाधीश और दो वरिष्ठ न्यायाधीशों की राय को वीटो कर सकते हैं। संसद में कुछ सदस्यों की राय यह भी थी कि न्यायपालिका में पिछड़े, अनुसूचित जाति-जनजाति के लोगों का प्रतिनिधित्व कम है, इसलिए समिति में इनका प्रतिनिधित्व होना चाहिए। देश के प्रधान न्यायाधीश आर एम लोढा कॉलेजियम व्यवस्था के पक्ष में अपनी राय रख चुके हैं, लेकिन बिल पास होने के बाद सुप्रीम कोर्ट परिसर में हुए स्वतंत्रता दिवस समारोह में उन्होंने इस मुद्दे पर बोलने से परहेज किया। उन्होंने यह कहा कि भारत में विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका में मौजूद लोग एक-दूसरे का सम्मान करते हैं, इतनी परिपक्वता उनमें है। इसी परिपक्वता के भरोसे यह कहा जा सकता है कि जब यह बिल सुप्रीम कोर्ट के सामने आएगा, तो फैसला संविधान के पैमाने पर होगा, न्यायविदों की अपनी राय जो भी हो। सच तो यह भी है कि कोई व्यवस्था निर्दोष नहीं होती, उसे अच्छा या बुरा बनाने में लोगों की नीयत और स्थापित परंपराओं का बड़ा महत्व होता है।
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नियुक्तियों में बढ़ेगी राजनीतिक दखलंदाजी

Sun, 17 Aug 2014

देश की आजादी के बाद से ही न्यायिक प्रणाली स्वतंत्र रूप से बिना किसी दबाव के काम करती रही है। आज के समय के तमाम जजों का चुनाव कोलेजियम प्रणाली से ही हुआ है। इस प्रक्रिया से चुने गए जजों ने बहुत से मामलों में महत्वपूर्ण फैसले बिना किसी दबाव के निष्पक्ष रूप से दिए हैं। मगर एक अर्से से स्वतंत्र न्यायिक प्रणाली राजनीतिक हस्तियों के निशाने पर रही है। उन लोगों की यह मंशा रही है कि किस तरह से न्यायिक तंत्र में अपना दखल पैदा किया जाए। यह बदलाव उसी का परिणाम है। पूर्व में कोलेजियम सिस्टम के तहत जजों का चुनाव करने से पूर्व उनकी जांच का कार्य केंद्र सरकार के अधीन सर्वश्रेष्ठ जांच एजेंसी आइबी द्वारा किया जाता था। उनकी जांच रिपोर्ट के आधार पर जज की नियुक्ति की पात्रता वाले जिस व्यक्ति को क्लीन चिट दी जाती थी। उन्हीं लोगों में से जजों का चुनाव किया जाता था। जस्टिस काटजू के अनुसार कुछ नियुक्तियों में भ्रष्टाचार हुआ। मगर, मेरा मानना है कि यह भ्रष्टाचार कोलेजियम की ओर से नहीं हुआ, बल्कि आइबी द्वारा की गई जांच में हुआ। अब अगर, आइबी किसी तथ्य को छिपा कर किसी व्यक्ति की अच्छी रिपोर्ट दे देती है और वह व्यक्ति बाद में खराब निकलता है तो इसमें कोलेजियम प्रणाली को दोष नहीं देना चाहिए था। गलती सभी से होती है, अगर किसी जज के चुनाव में गलती हुई तो इसका मतलब यह नहीं कि पूरा कोलेजियम सिस्टम ही खराब हो गया और उसे निरस्त कर दिया जाए। अगर किसी जज की नियुक्ति में अनियमितता की बात सामने आई है तो उसके लिए भी राजनीतिक दबाव जिम्मेदार रहा होगा। राजनीतिक दबाव के कारण ही आइबी द्वारा जांच प्रक्रिया में आवेदनकर्ता की कई बार सही रिपोर्ट न देकर कुछ तथ्यों को छिपा लिया जाता है। कोलेजियम सिस्टम को खत्म कर जो न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाया गया है। उसमें भी खामियां हैं। उससे जजों की नियुक्ति स्वतंत्र रूप से न हो सकेगी। इस प्रक्रिया के कारण अभी तक राजनीतिक दखल से दूर रहे न्यायिक तंत्र प्रणाली में भी राजनीतिक दखल पैदा हो जाएगा। जिसमें भ्रष्टाचार की कहीं अधिक आशंका है। जजों की नियुक्ति को स्वतंत्र रखने से न्याय की गुणवत्ता एवं विश्वसनीयता बनी रहती है। लिहाजा जजों के चुनाव के लिए कोलेजियम प्रणाली ही सही है, न कि न्यायिक आयोग।
-अधिवक्ता राजीव जय [चेयरमैन कोआर्डिनेशन काउंसिल आफ हाई कोर्ट एंड आल बार एसोसिएशन, दिल्ली]

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नियुक्ति के प्रावधान

Sun, 17 Aug 2014

दुनिया के विभिन्न देशों में न्यायपालिका के शीर्ष पदों पर नियुक्ति के प्रावधान इस प्रकार हैं-

ब्रिटेन: यहां न्यायपालिका के उच्च पदों वाले जजों को जजेस ऑफ द हाउस ऑफ लॉ‌र्ड्स कहा जाता है। इन सभी पदों के लिए जजों की नियुक्ति संबंधित मंत्री की सलाह पर कार्यकारी राजा करता है। इनमें से लॉ ला‌र्ड्स, द लॉ‌र्ड्स जस्टिस ऑफ अपील, द लॉ‌र्ड्स चीफ जस्टिस, द मास्टर ऑफ द रोल्स एंड द प्रेसीडेंट ऑफ द फेमिली डिवीजन को प्रधानमंत्री मनोनीत करते हैं। आमतौर पर यह माना जाता है कि प्रधानमंत्री को इस काम के लिए लॉर्ड चॉसलर द्वारा दिशा-निर्देश प्राप्त हुआ होगा। हाई कोर्ट के ऑर्डिनरी जजों, सर्किट जजों, रिकॉडर्स एंड डिप्टी हाई कोर्ट और सर्किट कोर्ट जजों को लॉर्ड चांसलर मनोनीत करते हैं। ऑस्ट्रेलिया: हाई कोर्ट और अन्य कोर्टो के जजों की नियुक्ति गवर्नर जनरल इन काउंसिल द्वारा की जाती है। यानी यहां के सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा की जाती है। कनाडा: शीर्ष अदालतों में जजों की नियुक्तियां गवर्नर जनरल द्वारा की जाती है। वैधानिक प्रावधान के अनुसार सुप्रीम कोर्ट का एक मुख्य न्यायाधीश होगा जिसे चीफ जस्टिस ऑफ कनाडा कहा जाएगा। इसके अलावा आठ अन्य जजों की नियुक्ति गवर्नर जनरल इन काउंसिल द्वारा की जाएगी। अमेरिका: सुप्रीम कोर्ट के जजों और मुख्य न्यायाधीश का चयन राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है। सीनेट इस चयन पर अपनी अनुमति देती है। जापान: मुख्य न्यायाधीश को छोड़कर सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्तियां कैबिनेट द्वारा की जाती है। कैबिनेट द्वारा मनोनीत होने के बाद मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राजा करते हैं। न्यायिक सेवा आयोग: ब्रिटेन के उपनिवेश रह चुके कई देश अपने यहां जजों की नियुक्ति के लिए न्यायिक सेवा आयोग का गठन किए हुए हैं। इन देशों के संविधान में इस आयोग का उल्लेख किया गया है। आमतौर पर इस आयोग का मुख्य काम शीर्ष पदों पर जजों की नियुक्तियों को लेकर सलाह देना है। मलावी, युगांडा, केन्या, मलेशिया, जमैका, सिएरा लियोन और त्रिनिदाद जैसे देशों में इससे मिलते जुलते प्रावधान हैं। न्यायिक सेवा आयोग का चेयरमैन मुख्य न्यायाधीश होगा। इस आयोग के चेयरमैन की सहमति से पब्लिक सर्विस कमीशन के चेयरमैन या ऐसे ही किसी दूसरे को इस आयोग का सदस्य बनाया जाएगा।

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दोषपूर्ण व्यवस्था

Thursday,Jul 24,2014

मद्रास उच्च न्यायालय में एक भ्रष्ट न्यायाधीश की नियुक्ति में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भी भूमिका उजागर होने के बाद यह स्वाभाविक है कि वह जवाब दें, लेकिन यह भी साफ है कि उनके स्पष्टीकरण से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। वैसे भी वह या तो गोलमोल जवाब देंगे या फिर गठबंधन राजनीति की कथित मजबूरियों का हवाला देकर अपने को पाक-साफ बताने की कोशिश करेंगे। चूंकि कथित भ्रष्ट न्यायाधीश इस दुनिया में नहीं हैं और राजनीतिक दबाव में उन्हें पदोन्नति देने वाले वाले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी सेवानिवृत्त हो चुके हैं इसलिए इस मामले की तह तक जाने के बजाय ऐसी व्यवस्था करना ज्यादा जरूरी है जिससे भविष्य में उस तरह से न हो सके जैसा नौ बरस पहले हुआ। कोई आश्चर्य नहीं कि उस तरह की नियुक्तियां और हुई हों जैसी मद्रास उच्च न्यायालय में 2005 में हुई थी। ऐसा न भी हुआ हो तो इसमें कोई दो राय नहीं कि न्यायाधीशों को नियुक्त करने की मौजूदा कोलेजियम व्यवस्था दोषपूर्ण है। इस व्यवस्था के दोष एक नहीं अनेक बार सामने आ चुके हैं। सत्तापक्ष और विपक्ष के साथ कानूनी मामलों के विशेषज्ञ भी इससे परिचित हैं कि किस प्रकार कोलेजियम की ओर से योग्य न्यायाधीशों की अनदेखी की गई और उन्हें सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत नहीं किया गया। यह निराशाजनक है कि कोलेजियम व्यवस्था के दोष नजर आ जाने के बावजूद फिलहाल कोई भी यह कहने की स्थिति में नहीं कि वैकल्पिक व्यवस्था का निर्माण कब होगा? कोलेजियम व्यवस्था को खत्म कर राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बनाने की पहल अभी संसद में ही अटकी हुई है। बेहतर हो कि सरकार यह सुनिश्चित करे कि न्यायिक आयोग के गठन की प्रक्रिया आगे बढ़े और दोषपूर्ण कोलेजियम व्यवस्था से छुटकारा मिले। न्यायिक आयोग गठित करते समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि नई व्यवस्था में किसी तरह का अनुचित दखल न हो सके। इसी के साथ यह भी आवश्यक होगा कि न्यायिक क्षेत्र में जो अन्य सुधार अपेक्षित हैं उन पर भी गंभीरता से ध्यान दिया जाए। चूंकि मोदी सरकार ने यह भरोसा दिलाया है कि वह भविष्य की ओर देखेगी, न कि पिछली बातों पर वक्त जाया करेगी इसलिए न्यायिक सुधारों में जो भी सुधार वांछित हैं उन्हें पूरा करने में देर नहीं करनी चाहिए। यह ठीक नहीं कि आर्थिक सुधारों के साथ-साथ चुनावी और राजनीतिक सुधारों पर तो आगे बढ़ा जा रहा है, लेकिन न्यायिक सुधारों के मामले में स्थिति जस की तस है। यह निराशाजनक है कि न्यायिक सुधारों की दिशा में इसलिए आगे नहीं बढ़ा जा पा रहा है, क्योंकि विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका इस संदर्भ में एक-दूसरे को उसकी जिम्मेदारी की याद दिलाने तक सीमित हैं। यह स्थिति बदलनी चाहिए। जब तक न्यायिक सुधारों के लिए विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका मिलकर काम करती नजर नहीं आएंगी तब तक बात बनने वाली नहीं है। मद्रास उच्च न्यायालय में एक न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले ने न्यायिक सुधारों की दिशा में आगे बढ़ने का एक अवसर उपलब्ध कराया है। इन सुधारों की आवश्यकता केवल इसलिए नहीं है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया सुधरे, बल्कि इसलिए भी है कि न्याय का पहिया कुछ तेजी के साथ चले।
[मुख्य संपादकीय]
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न्यायपालिका की आजादी

Sun, 14 Sep 2014

यह किसी से छिपा नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा को कोलेजियम के जरिये न्यायाधीशों की नियुक्ति की मौजूदा व्यवस्था खत्म करने की केंद्र सरकार की पहल रास नहीं आ रही है, लेकिन इसकी उम्मीद शायद ही किसी को हो कि वह इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता छीनने की कोशिश के रूप में देखेंगे। गत दिवस उन्होंने जो कुछ कहा उसका मतलब यही है कि कोलेजियम को खत्म करके न्यायपालिका की आजादी छीनने की कोशिश की जा रही है। उनके मुताबिक चूंकि आम आदमी भी आजाद न्यायपालिका की जरूरत समझने लगा है इसलिए सरकार की कोशिश सफल नहीं हो सकेगी। यह बिल्कुल सही है कि आम जनता स्वतंत्र न्यायपालिका की अहमियत समझती है, लेकिन वह चिंतित तो तब होगी जब वास्तव में न्यायपालिका के पर कतरने की कोशिश हो रही होगी। कोलेजियम व्यवस्था की खामियां जगजाहिर हो चुकी हैं। अनेक विधि विशेषज्ञ इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि इसके जरिये योग्यतम न्यायाधीशों के चयन का लक्ष्य पूरा नहीं हो रहा है। भारत उन देशों में एक है जहां न्यायाधीश ही न्यायाधीशों का चयन करते हैं। ऐसा किसी भी श्रेष्ठ लोकतांत्रिक देशों में नहीं है। नि:संदेह न्यायपालिका को हर हाल में स्वतंत्र रहना चाहिए, लेकिन स्वतंत्रता का मतलब एकाधिकार नहीं होता। इससे शायद ही कोई इन्कार करे कि फिलहाल न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका का एकाधिकार ही है।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं कर सकते कि कोलेजियम व्यवस्था के स्थान पर न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए नई व्यवस्था के निर्माण की कोशिश एक लंबे अर्से से हो रही है। इसी कोशिश का परिणाम रहा कि पिछले दिनों न्यायाधीशों की नियुक्ति की नई व्यवस्था से संबंधित विधेयक को संसद के दोनों सदनों की मंजूरी मिल गई। इस दौरान करीब-करीब सभी राजनीतिक दलों ने इस विधेयक का समर्थन किया। यह ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की तरह से कुछ अन्य विधिवेत्ता भी सरकार की पहल से सहमत नहीं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि दोषपूर्ण कोलेजियम व्यवस्था को बनाए रखा जाए और वह भी तब जब कई मामलों में यह सामने आ चुका है कि न्यायाधीशों का चयन सही तरह से नहीं हुआ। एक तथ्य यह भी है कि कोलेजियम व्यवस्था को पारदर्शी बनाने की कोई पहल नहीं की गई। इसी तरह न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद को समाप्त करने की दिशा में भी कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए। यदि यह समझा जा रहा है कि न्यायपालिका को भ्रष्टाचार से मुक्त रखने की अपील मात्र से सब कुछ सही हो जाएगा तो ऐसा होने वाला नहीं। चूंकि अपने-अपने दायरे में रहते हुए विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका एक-दूसरे पर निर्भर हैं इसलिए बेहतर यही होगा कि आपसी तालमेल और संवाद के जरिये उन समस्याओं को दूर करने की कोशिश की जाए जिनसे न्यायपालिका ग्रस्त नजर आ रही है और जिन्हें लेकर सवाल भी उठते रहते हैं।
[मुख्य संपादकीय]

न्यायपालिका और सरकार

जनसत्ता 03 जुलाई, 2014 : पूर्व महाधिवक्ता गोपाल सुब्रमण्यम को सर्वोच्च न्यायालय का जज नियुक्त करने की कॉलिजियम की सिफारिश नकार दिए जाने पर प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा की प्रतिक्रिया ने सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है। करीब एक पखवाड़े से चल रहे इस विवाद पर न्यायमूर्ति लोढ़ा ने पहली बार चुप्पी तोड़ी है। गौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत में नए जजों के नाम प्रस्तावित करने वाली समिति यानी कॉलिजियम ने सुब्रमण्यम के अलावा तीन और नामों की भी सिफारिश केंद्र सरकार को भेजी थी। सरकार ने वे तीन नाम तो स्वीकार कर लिए, पर सुब्रमण्यम के लिए हरी झंडी नहीं दी। इससे नाराज सुब्रमण्यम ने जज बनने के लिए दी गई अपनी सहमति वापस ले ली। फिर, यह माना जा रहा था कि यह प्रकरण खत्म हो गया है। लेकिन इस पर प्रधान न्यायाधीश की टिप्पणी ने इसे फिर चर्चा का विषय बना दिया है। उन्होंने सुब्रमण्यम का नाम सिफारिशों से अलग रखने के सरकार के इकतरफा फैसले को आपत्तिजनक करार देते हुए कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, ऐसा हुआ तो वे पद छोड़ने से भी नहीं हिचकेंगे।
यों सुब्रमण्यम के नाम पर फिर से विचार किए जाने की अब कोई संभावना नहीं है, क्योंकि वे अपनी सहमति वापस लेने का निर्णय अंतिम रूप से जता चुके हैं, और सरकार के लिए राहत की बात बस यही है। मगर इस मामले में प्रधान न्यायाधीश का बयान एक असामान्य घटना है और निश्चय ही इससे मोदी सरकार की साख को चोट पहुंची है। कानूनमंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि सुब्रमण्यम से संबंधित सिफारिश रोकी नहीं गई, बस उनकी बाबत सत्यापन होने में देर हो रही थी। यह सफाई लीपापोती के अलावा और कुछ नहीं है। सुब्रमण्यम के बारे में नीरा राडिया टेप में उनका जिक्र आने से लेकर कई तरह की बातें फैलाई गर्इं। इससे यही धारणा बनी कि सरकार को उनका दामन पाक-साफ होने को लेकर संदेह है। अगर सरकार का यही रुख था तो अब महज सत्यापन में देरी होने की बात क्यों कही जा रही है! नए जजों की नियुक्ति का हक कॉलिजियम को है, सरकार को सिफारिश भेजना औपचारिकता ही रही है। अलबत्ता इसके पहले भी एक-दो उदाहरण मिल जाएंगे, जब कॉलिजियम के सुझाए नामों से कोई जज बनने से रह गया हो। पर अपवाद को सरकार अपना पक्ष नहीं बना सकती। अगर उसे सुब्रमण्यम को लेकर कुछ शंका थी, तो तथ्यों की बिना पर प्रधान न्यायाधीश से विचार-विमर्श करना चाहिए था। पर ऐसा नहीं किया गया। सुब्रमण्यम ने सोहराबुद््दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमित्र का दायित्व निभाया था। उनसे जुड़ी सिफारिश रोक लिए जाने के पीछे कहीं यही वजह तो नहीं थी?
जो हो, पर इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि अमित शाह की अपील खारिज कर दिए जाने के बाद कुछ ही दिनों में संबंधित जज का तबादला हो गया। पिछले दिनों राष्ट्रीय आपदा प्राधिकरण के उपाध्यक्ष पद से सलीम अली को हटना पड़ा, जो सीबीआइ के विशेष निदेशक रह चुके थे और जिन्होंने इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ कांड की जांच की थी। इन अनुभवों के मद््देनजर यह सवाल उठता है कि जज के रूप में सुब्रमण्यम की नियुक्ति न होने देने का रवैया क्या सरकार ने किसी खुंदक के चलते अपनाया, और क्या वह न्यायपालिका पर अपनी पसंद थोपना चाहती है? जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर जब-तब बहस चलती रही है और कॉलिजियम प्रणाली पर सवाल भी उठाए जाते रहे हैं। इसके विकल्प के रूप में ही न्यायिक नियुक्ति एवं जवाबदेही आयोग गठित करने की बात यूपीए सरकार के समय चली थी, जिससे संबंधित विधेयक पास नहीं हो सका। पर जजों की नियुक्ति को सरकार प्रभावित करे, यह तो किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं हो सकता।