Tuesday 23 September 2014

न्यायपालिका के आदेश




रिहाई की आस

Sat, 06 Sep 2014 

सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश विचाराधीन कैदियों के लिए एक बड़ी राहत लेकर आया है कि जिन्होंने अपनी संभावित सजा का आधा समय जेलों में काट लिया है उन्हें रिहा कर दिया जाए। चूंकि केंद्र सरकार भी इस पर विचार कर रही थी, इसलिए यह उम्मीद की जा सकती है कि शीघ्र ही सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल शुरू होगा और हजारों कैदियों को जेल की सलाखों से मुक्ति मिलेगी। देखना यह है कि अगर इस काम में कोई बाधाएं आती हैं तो उन्हें आसानी से दूर किया जा सकेगा या नहीं? यह सवाल इसलिए, क्योंकि इसमें संदेह है कि राज्य सरकारों के पास ऐसे कोई आंकड़े होंगे कि उनकी जेलों में बंद कितने विचाराधीन कैदी अपनी संभावित सजा का आधा समय काट चुके हैं? चूंकि यह स्पष्ट नहीं कि क्या सुप्रीम कोर्ट का आदेश हत्या और दुष्कर्म के आरोपों का सामना कर रहे कैदियों पर भी लागू होगा या नहीं इसलिए असमंजस की स्थिति पैदा हो सकती है। कुछ कैदी ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें सजा सुनाए जाने का समय तय हो गया होगा। इनके बारे में भी स्पष्टता आवश्यक है। बेहतर हो कि राज्य सरकारें उन विचाराधीन कैदियों की रिहाई के मामले में सक्रियता का परिचय दें जो हत्या और दुष्कर्म सरीखे गंभीर अपराधों के आरोपी नहीं हैं और जिन्होंने अपनी संभावित सजा का आधा या उससे ज्यादा समय जेलों में गुजार दिया है। एक अनुमान के अनुसार देश में करीब चार लाख कैदी हैं, जिनमें से ढाई लाख से अधिक विचाराधीन हैं। यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इनमें से एक बड़ी संख्या उन कैदियों की होगी जो छोटे-मोटे अपराधों में शामिल होने के आरोप में सलाखों के पीछे बंद हैं। यह ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट और साथ ही केंद्र सरकार इस नतीजे पर पहुंचे कि उन विचाराधीन कैदियों को रिहा कर देने में ही भलाई है जो अपनी संभावित सजा का आधा हिस्सा जेलों में गुजार चुके हैं, लेकिन किसी को इस पर विचार करना चाहिए कि इसकी नौबत क्यों आई? न्याय का तकाजा तो यह कहता है कि किसी भी आरोप का सामना कर रहे व्यक्ति का फैसला एक निश्चित समय में किया जाए। यदि समय पर मुकदमों के निस्तारण की कोई व्यवस्था नहीं बनाई जाती तो कुछ समय बाद फिर से विचाराधीन कैदियों का सवाल खड़ा हो सकता है, क्योंकि यह किसी से छिपा नहीं कि देश की करीब-करीब सभी जेलों में क्षमता से कहीं अधिक कैदी रह रहे हैं और उन पर अच्छा-खासा धन भी खर्च हो रहा है। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि विचाराधीन कैदियों के बारे में एक उचित फैसला हुआ, क्योंकि अदालतों में लंबित मुकदमों के बोझ से छुटकारा मिलने की उम्मीद अभी भी नहीं दिखती और विचाराधीन कैदियों के जो लाखों मामले लंबित हैं उनके बारे में कोई बीच का रास्ता अपनाने की स्थिति भी नहीं है। स्पष्ट है कि समय पर न्याय देने की व्यवस्था का निर्माण करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। इस बारे में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के स्तर पर वर्षो से विचार-विमर्श हो रहा है, लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा पा रहा है। बेहतर होगा कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, तीनों मिलकर यह सोचें कि समय पर न्याय कैसे सुलभ हो?
---------------------

फैसले के बाद

Thu, 25 Sep 2014

अंतत: सुप्रीम कोर्ट ने कोयला खदानों के वे सभी 214 आवंटन रद कर दिए जिन्हें मनमाने तौर से बांटा गया था। चूंकि इन खदानों के आवंटन में मनमानी एक घोटाले की शक्ल लेकर सामने आ चुकी थी इसलिए इसी तरह के किसी फैसले की उम्मीद की जा रही थी-इसलिए और भी, क्योंकि खुद केंद्र सरकार ने यह कहा था कि ऐसे किसी निर्णय से उसे आपत्ति नहीं होगी। एक साथ इतनी बड़ी संख्या में कोयला खदानों का आवंटन रद होना नीतियों को लागू करने में मनमानी बरतने के दुष्परिणाम का परिचायक है। प्राकृतिक संसाधनों के मामले में इस तरह की मनमानी को स्वीकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से पहले से ही संकट से जूझ रहे ऊर्जा क्षेत्र की समस्याएं बढ़ सकती हैं। कोयले का संकट अर्थव्यवस्था के लिए भी मुश्किलें पेश कर सकता है। चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने उन 42 कंपनियों के भी आवंटन रद कर दिए हैं जिन्होंने किसी न किसी स्तर पर कोयला खनन का काम शुरू कर दिया था या फिर शुरू करने ही वाली थीं इसलिए कोयले का संकट पैदा होने के साथ ही कारपोरेट जगत को भी झटका लगना तय है। 1जिन 42 कोयला खदानों का आवंटन रद किया गया है उनसे कुल उत्पादन का करीब दस फीसद कोयला निकल रहा था। इसे मामूली नहीं कहा जा सकता और शायद इसीलिए यह सवाल उठ रहा है कि क्या यह संभव नहीं था कि जिस तरह चार कोयला खदानों के आवंटन जुर्माने के साथ बख्श दिए गए उसी तरह उन कंपनियों के मामले में भी लचीला रवैया अपनाया जाता जो कोयले का खनन शुरू करने की स्थिति में आ गई थीं? यह सवाल इसलिए, क्योंकि नीति नियंताओं और कोयला कंपनियों की गलती की सजा देश की अर्थव्यवस्था को मिलने जा रही है। यह ठीक है कि कोयला खदानों के आवंटन रद होने के बाद केंद्र सरकार ने एक नई शुरुआत करने की बात कही है, लेकिन इस काम में देरी नहीं होनी चाहिए। भले ही कोयला खदानों से वंचित कंपनियों के कामकाज को कोल इंडिया अपने हाथ में लेने जा रही है, लेकिन सब जानते हैं कि उसके पास इतनी क्षमता नहीं कि वह जरूरत भर कोयले का खनन कर सके। कोयला आवंटन की पूरी नीति बदलने की तैयारी दिखा रही सरकार को ऐसा कोई रास्ता निकालना होगा जिससे अर्थव्यवस्था के प्रभावित होने की आशंकाओं को दूर किया जा सके।
[स्थानीय संपादकीय: दिल्ली]
------------------

निष्पक्षता पर सवाल

Thu, 25 Sep 2014

पारुइ के सागर घोष हत्याकांड में बुधवार को आखिर कलकत्ता उच्च न्यायालय ने सीबीआइ जांच का निर्देश दे दिया। इस घटना की सीबीआइ जांच महज निर्देश मात्र नहीं है। यह बंगाल के पुलिस प्रशासन की निष्पक्षता के लिए भी बड़ा प्रश्नचिन्ह है। हाईकोर्ट के न्यायाधीश हरिश टंडन ने सीबीआइ जांच का फैसला सुनाते हुए जो टिप्पणी की है वह काफी गंभीर है। हाईकोर्ट ने राज्य के पुलिस प्रमुख (डीजीपी) के नेतृत्व में गठित स्पेशल जांच टीम (सीट) पर सवाल खड़ा किया है। यह पुलिस प्रशासन के प्रति लोगों का भरोसा तोड़ने वाला निर्देश है। क्योंकि, न्यायाधीश टंडन ने जिस तरह यह कहा कि हाईकोर्ट के निर्देश पर गठित सीटी ने प्रभावित होकर दोषियों को बचाने की कोशिश की है। वह खुद में सवाल है। हाईकोर्ट के फैसले से साफ हो गया है कि सत्तारूढ़ दल के नेताओं से जुड़े मामले में पुलिस की भूमिका क्या होती है? क्या हाईकोर्ट के इस निर्देश के बाद लोगों का भरोसा पुलिस प्रशासन पर कायम रह सकेगा? इस मामले में पुलिस से लेकर सीआइडी तक की हाईकोर्ट के अंदर और बाहर काफी आलोचना हुई थी। इसके बावजूद सीट की जांच निष्पक्ष न होना बहुत ही गंभीर विषय है। हाईकोर्ट की देखरेख में सीट को जांच का दायित्व सौंपा गया था, लेकिन जिस तरह से सीट ने हाईकोर्ट को बिना बताए निचली अदालत में चार्जशीट पेश की और मुख्य आरोपी का नाम हटा दिया गया, उसके बाद से ही लग रहा था कि हाईकोर्ट मामले की सीबीआइ जांच का निर्देश दे सकता है। क्योंकि, पुलिस की जांच पर सवाल खड़ा होने पर हाईकोर्ट ने सीआइडी जांच का निर्देश दिया था। परंतु, सीआइडी भी निष्पक्ष जांच नहीं कर सकी तो हाईकोर्ट को बाध्य होकर डीजीपी के नेतृत्व में स्पेशल जांच टीम गठित की गई। पर, वह भी हाईकोर्ट की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। जब हाईकोर्ट की निगरानी में सीट जांच कर रही थी तब इस तरह मुख्य आरोपियों को बचाने की कोशिश हुई, ऐसे में आम लोगों से जुड़े मामलों में पुलिस की भूमिका कैसी होती होगी इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। क्या पुलिस व प्रशासन के प्रति जो लोगों का भरोसा व विश्वास रसातल में पहुंचा है यह कभी पुन: कायम हो सकेगी? ऐसा नहीं जान पड़ता। यह सिर्फ पुलिस प्रशासन नहीं मुख्यमंत्री व गृहमंत्री ममता बनर्जी के प्रति भी लोगों का भरोसा भी कम करने वाला मामला है। हाईकोर्ट के निर्देश से यह भी साबित हो रहा है कि राजनीतिक स्वार्थ के लिए पूरे पुलिस विभाग की साख को धूमिल किया गया है। जब मुख्यमंत्री खुद मुख्य आरोपी को सरेआम बेकसूर बता दिया हो तो कौन पुलिस उनसे पूछताछ करने की हिम्मत दिखा सकती है। यह बात हाईकोर्ट में उठी थी। अब भी वक्त है पुलिस को अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए।
[स्थानीय संपादकीय: पश्चिम बंगाल]


No comments: