Thursday 4 September 2014

संसद सदस्यों के आपराधिक मामलों की सुनवाई


न्याय का सवाल
Saturday,Aug 02,2014

सांसदों के आपराधिक मामलों की जल्द सुनवाई के बारे में सुप्रीम कोर्ट का यह कहना सैद्धांतिक तौर पर सही है कि ऐसा करने से एक अलग श्रेणी बन जाएगी, लेकिन अगर महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों से जुड़े मामलों की जल्द सुनवाई की जरूरत महसूस की जा रही है तो फिर ऐसा ही सांसदों के मामले में क्यों नहीं सोचा जा सकता? चूंकि फिलहाल यह प्रश्न अनुत्तरित है और सुप्रीम कोर्ट राजनीति के अपराधीकरण पर लगाम लगाने के लिए संसद सदस्यों के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों के शीघ्र निपटारे के लिए तैयार नहीं इसलिए अब देखना यह होगा कि मोदी सरकार इस सिलसिले में राज्यों से विचार-विमर्श के बाद कोई प्रभावी प्रस्ताव तैयार कर पाती है या नहीं? यह सवाल इसलिए, क्योंकि ज्यादातर राजनीतिक दलों की इसमें दिलचस्पी नहीं कि संसद सदस्यों के आपराधिक मामलों की सुनवाई आनन-फानन हो। उनके रवैये को देखते हुए इसमें संदेह है कि वे इस विषय पर केंद्र सरकार के साथ विचार-विमर्श करने के लिए आगे आएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने सांसदों के आपराधिक मामलों की जल्द सुनवाई के मामले में गेंद न केवल केंद्र सरकार के पाले में डाल दी है, बल्कि नए सिरे से यह भी रेखांकित किया है कि निचली अदालतें किस तरह संसाधनों के अभाव से जूझ रही हैं। इस अभाव के चलते अदालतों में करोड़ों मुकदमे लंबित हैं और फिलहाल इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं कि उनका निपटारा कैसे होगा? 1करोड़ों लंबित मामले सुशासन की बुनियादी धारणा के खिलाफ हैं। देशवासियों को समय पर न्याय न मिलना लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के भी खिलाफ है। हालांकि एक लंबे अर्से से लंबित मुकदमों का मामला बार-बार उठता है। कभी सरकार की ओर से और कभी न्यायपालिका की ओर से, लेकिन ऐसी व्यवस्था बनने के आसार अभी भी नजर नहीं आते जिससे न्यायिक प्रक्त्रिया को गति मिल सके और अदालतों में मुकदमों के बोझ को कम किया जा सके। समय पर न्याय उपलब्ध कराने के लिए त्वरित अदालतों के गठन से भी अभीष्ट की पूर्ति होती नहीं दिखती। इसी तरह सांध्य अदालतों के गठन की प्रक्त्रिया भी अभी अधर में ही है। चिंताजनक यह है कि राच्य सरकारें इसके प्रति तनिक भी सजग नजर नहीं आतीं कि निचली अदालतों में लंबित मुकदमों का निपटारा समय पर हो। निचले स्तर की अदालतों को जरूरी संसाधन प्रदान करने के मामले में ज्यादातर राच्य सरकारों का रवैया ढुलमुल ही है। समस्या यह है कि उच्च न्यायालय भी पर्याप्त संसाधनों से लैस नजर नहीं आते। शायद ही कोई उच्च न्यायालय हो जहां न्यायाधीशों के पद रिक्त न हों। इन स्थितियों में इसका कोई मतलब नहीं कि बार-बार इसका उल्लेख किया जाए कि देश में मुकदमों के निपटारे की प्रक्त्रिया कितनी शिथिल है। इस शिथिलता से देश को उबारने की जिम्मेदारी देश के नीति-नियंताओं की है। बेहतर हो कि वे इस मसले पर उच्चतम न्यायालय के साथ विचार-विमर्श कर कोई ऐसी रूपरेखा तैयार करें जिसे शीघ्र अमल में भी लाया जा सके। लंबित मुकदमों के बोझ को समाप्त करने का यही तरीका है और इस दिशा में आगे बढ़ने में अब और अधिक देरी नहीं होनी चाहिए।
[मुख्य संपादकीय]
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न्याय की गति

नवभारत टाइम्स | Aug 4, 2014

सुप्रीम कोर्ट ने सांसदों के मुकदमों की जल्दी सुनवाई से इनकार करके जो संदेश देने की कोशिश की है, उसे समझने की जरूरत है। कोर्ट ने साफ कर दिया है कि सांसद किसी विशेष वर्ग के तहत नहीं आते। वे एक सामान्य नागरिक हैं और उसी रूप में उन्हें न्याय पाने का भी हक है। हां, यह जरूर है कि इस देश के हरेक नागरिक को जल्दी इंसाफ मिले। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनावी भाषणों में कहा था कि दागी सांसदों और विधायकों के केस एक साल के भीतर निपटाए जाने की पहल होनी चाहिए। पीएम बनने के बाद उन्होंने इस संबंध में कानून मंत्री को निर्देश भी दिए थे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट उनकी इस मांग से सहमत नहीं है। उसने कहा है कि महिलाओं और बुजुर्गों से जुड़े ऐसे बहुत से मुकदमे हैं जिनकी तेज सुनवाई की आज ज्यादा जरूरत है। फिर विभिन्न श्रेणियों में फास्ट ट्रैक सुनवाई से क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में कोई सुधार नहीं हो रहा है क्योंकि निचली अदालतों में कर्मचारियों और सुविधाओं की कमी है। इसलिए कोर्ट ने मोदी सरकार से कहा है कि पूरी न्याय व्यवस्था की गति बढ़ाने के लिए वह राज्यों से सलाह करके एक महीने के भीतर एक ठोस प्रस्ताव लेकर आए। अदालत ने केसों के लंबित रहने पर गहरी चिंता जताते हुए कहा कि मुकदमों का 10-10 साल तक लटके रहना लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। बेहतर गवर्नेंस के लिए न्याय प्रक्रिया तेज होनी ही चाहिए। कोर्ट ने दरअसल यह याद दिलाया है कि जल्दी इंसाफ दिलाने की जवाबदेही अकेले जुडिशरी की नहीं है, कार्यपालिका को भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। लेकिन दिक्कत यह है कि हमारे देश का राजनीतिक नेतृत्व हर स्तर पर अपने लिए विशेषाधिकार सुरक्षित कर लेना चाहता है। वह अपने लिए न्याय तक जल्दी चाहता है। लेकिन कार्यपालिका या विधायिका के सदस्य के रूप में उस साधारण जनता को सहूलियतें दिलाने के लिए तत्पर नहीं रहता, जिसका वह प्रतिनिधित्व करता है। अदालतों में मुकदमों के ढेर के लिए एग्जिक्यूटिव की उदासीनता भी काफी हद तक जवाबदेह है। केसों की सुनवाई इसलिए भी टलती रहती है क्योंकि जज कम हैं। सरकार जजों की नियुक्ति को लेकर काफी सुस्त रही है। फिर निचली अदालतों में बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने पर भी उसका ध्यान नहीं है। कई केस तो पुलिस की ढिलाई की वजह से पेंडिंग पड़े रहते हैं। अगर पुलिस अपनी जांच और दूसरी कार्रवाइयों में तेजी दिखाए तो मुकदमों के बोझ से छुटकारा संभव है। न्यायालयों में मामलों के लंबित रहने से न्याय के प्रति लोगों में आस्था कम हुई है। आज यह राय जोर पकड़ रही है कि न्याय सिर्फ रसूख वालों को मिल पाता है या अदालतें उन्हीं केसों को लेकर गंभीर होती हैं जिनसे किसी न किसी रूप में प्रभावशाली तबका जुड़ा होता है या जिन्हें प्रचार मिलता है। इस धारणा को खत्म करने के लिए कार्यपालिका को सक्रिय भूमिका निभानी होगी और न्यायपालिका के साथ सहयोग करना होगा। 

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