Thursday 4 September 2014

इच्छा मृत्यु के सवाल को लेकर


कसौटी पर न्याय और नैतिकता

Sunday,Jul 27,2014

इच्छा मृत्यु के सवाल को लेकर देश में बहस एक बार फिर तेज हो गई है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने इच्छा मृत्यु को कानूनी मान्यता दिए जाने संबंधी एक याचिका पर केंद्र सरकार व सभी राज्यों को नोटिस भेजकर उनकी राय मांगी है। सुप्रीम कोर्ट ने ही देश में इच्छा मृत्यु को कानूनी दर्जा देने या न देने का यह मामला पांच जजों की संविधान पीठ को सौंपा था। 2008 में कॉमन कॉज एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी। इसमें तर्क दिया गया कि यदि कोई व्यक्ति मरणासन्न अवस्था में हो और उसके ठीक होने की कोई उम्मीद न हो तो उसे जीवन रक्षक प्रणाली की मदद लेने से इन्कार करने का अधिकार होना चाहिए। केंद्र सरकार ने इसे आत्महत्या करार देते हुए साफ किया कि देश में इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती, क्योंकि यह कानून और चिकित्सा आचार नीतियों के खिलाफ होगा। जाहिर है कि संविधान पीठ केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के जवाब और देश में चल रही बहस से निकलने वाले तथ्यों के आधार पर ही कोई निर्णय लेगी। इसी के आधार पर अदालत भी अपने पूर्व के आदेश पर पुनर्विचार करेगी, जिसने दवाओं के जरिये जान लेने यानी एक्टिव यूथनेशिया का आग्रह खारिज कर दिया था। भारत में इच्छा मृत्यु तथा दया मृत्यु दोनों ही अवैधानिक है। देश की शीर्ष अदालत में पहले भी दलीलें दी जा चुकी हैं कि व्यक्ति को जीने का अधिकार है तो उसे मरने का अधिकार भी होना चाहिए। इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट के दो निर्णय हमारे सामने हैं और इनसे भी इच्छा मृत्यु से जुड़ी तस्वीर साफ नहीं होती। पहला मामला दो दशक पुराना है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि अनुच्छेद-21 में गरिमा के साथ जीने का अधिकार शामिल है। कई लोगों का तर्क है कि अगर इसमें जीने का अधिकार शामिल है तो इसमें गरिमा के साथ मरने का अधिकार भी शामिल होना चाहिए। वर्ष 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने ज्ञान कौर बनाम पंजाब सरकार के मामले में स्पष्ट किया कि अनुच्छेद-21 में जीवन जीने के अधिकार में मृत्युवरण का अधिकार शामिल नहीं है। अगर ऐसा किया जाता है तो यह भारतीय दंड संहिता की धारा 306 और 309 में आत्महत्या का अपराध माना जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि इच्छा मृत्यु को विधिसम्मत बनाने का फैसला विधायिका को करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का दूसरा फैसला 7 मार्च, 2011 में अरुणा रामचंद्र शानबाग के मामले में आया था। दरअसल अरुणा शानबाग मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में नर्स थी। 27 नवंबर, 1973 को एक स्वीपर ने उसका यौन उत्पीड़न किया था। उस घटना के बाद वह कोमा में चली गई। 17 दिसंबर, 2010 को अरुणा शानबाग की लेखिका मित्र पिंकी विरानी ने उसे इस असहाय जीवन से मुक्त कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक अर्जी दी। 7 मार्च, 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने तब निष्क्रिय इच्छा मृत्यु यानी पैसिव यूथनेशिया के पक्ष में फैसला सुनाया। इससे साफ हो गया था कि यदि शानबाग के कानूनी रक्षक चाहें तो उसके लाइफ सपोर्ट सिस्टम को हटाया जा सकता है। किसी व्यक्ति की गंभीर बीमारी और उससे जुड़ी तकलीफ के आधार पर इच्छा मृत्यु को सक्रिय और निष्क्रिय दो आधार पर देखा जाता है। सक्रिय इच्छा मृत्यु का अर्थ है पीड़ा रहित मृत्यु के लिए प्राणघातक इंजेक्शन का प्रयोग किया जाए। दूसरी ओर जिन दवाओं और उपकरणों के सहारे मरीज जिंदा है उन्हें हटा लेना निष्क्रिय इच्छा मृत्यु है। सुप्रीम कोर्ट के इन दोनों ही फैसलों का आशय तो समान था, परंतु उसमें इच्छा मृत्यु से जुड़ी कोई राय स्पष्ट न होने से उसमें कानूनी अस्पष्टता और उलझन अभी भी बनी हुई है। इच्छा मृत्यु पर केवल भारत में बहस नहीं जारी है। विश्व के कई हिस्सों में इच्छा मृत्यु को कानूनी वैधता है। स्विट्जरलैंड में 1937 में सबसे पहले असिस्टेड सुसाइड की मंजूरी मिली थी। फ्रांस और कनाडा के कानून में लाइलाज बीमारी से ग्रसित रोगी की जीवन रक्षक प्रणाली मरीज के अनुरोध पर हटाने का प्रावधान है, लेकिन अगर चिकित्सक स्वार्थवश ऐसा करता है तो यह अपराध की श्रेणी में होगा। बेल्जियम में इच्छा मृत्यु को 2002 में कानूनी मान्यता मिली। वहां दिसंबर, 2013 में असाध्य बीमारियों से जूझ रहे बच्चों के लिए भी इच्छा मृत्यु को वैध बना दिया गया। दूसरी ओर जापान, मैक्सिको तथा लक्जमबर्ग जैसे देशों में सक्त्रिय इच्छा मृत्यु को विधि सम्मत माना गया है। यहां इससे जुड़े कानून बेहद कडे़ हैं। यहां पहले बीमारियों की सूची तैयार की जाती है और एक खास आयोग यह तय करता है कि मरीज को इच्छा मृत्यु दी जा सकती है या नहीं। आयरलैंड, इजरायल, फिलीपींस, नार्वे तथा इंग्लैंड जैसे देशों में इच्छा मृत्यु से जुड़े कानून भारत जैसे ही हैं। चिकित्सा का नीतिशास्त्र कहता है कि जब तक संभव हो डॉक्टर को मरीज को बचाना चाहिए। इच्छा मृत्यु के पक्षकार मानते हैं कि कुछ रोग और अवसाद की स्थिति में ही पीड़ित को सम्मानजनक मौत मिलनी चाहिए। 19वीं और 20वीं सदी में भी भारत में असहाय व गंभीर बीमारियों में अघोषित इच्छा मृत्यु की अनुमति रही है। भारत जैसे बहुधार्मिक देश में संसद और न्यायालयों के सामने भी धार्मिक व नैतिक आस्थाओं से जुड़ी दुश्वारियां कम नही हैं। इच्छा मृत्यु को कानूनी जामा पहनाने के मसले पर संविधान पीठ के सामने भी जरूर ये दुविधाएं बनी रहेंगी। हालांकि भारतीय विधि आयोग पहले ही इस मामले पर संसद को अपनी सहमति दे चुका है। भारत जैसे उदार देश में कानूनों की आड़ में इसके दुरुपयोग की भी पूरी-पूरी संभावनाएं हैं। किडनी प्रत्यारोपण से जुड़े मानव अंगों की तस्करी का मामला अभी भी हमारे जेहन में है। निश्चित ही देश अब संविधान पीठ की ओर टकटकी लगाए है कि इच्छा मृत्यु के तमाम नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व वैज्ञानिक पहलुओं को ध्यान में रखकर ही यह पीठ जीवन का अंत करने की एक न्यायोचित परिभाषा को गढ़कर समाज व देश को इस उलझन से मुक्त करेगी।
[लेखक डॉ. विशेष गुप्ता, समाज शास्त्र के प्राध्यापक हैं]

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